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________________ (४३) वास नगर हैं और वहीं बहुत वाणमंतर देव रहते हैं । जैसे कि पिशाच, भूत और यक्ष आदि,आठ और अणपन्नी-पणपन्नी आदि आठ मिलाकर सोलह होते हैं।' संग्रहण्यां तु - इय पढमजोअणसए रयणए अट्ठवंतरा अवरे । . तेसिं इह सोलसिंदा रूअगहो दाहिणुत्तरओ ॥ संग्रहणी में तो इस तरह कहा है कि - रत्नप्रभा पृथ्वी के पहले एक सौ योजन को छोड़कर आठ जाति के व्यन्तर रहते हैं और इनके रूचक से दक्षिण में आठ और उत्तर में आठ मिलकर सोलह इन्द्र हैं। योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश वृत्तौतु एवम् । 'रत्नप्रभायामेव प्रथमस्य शतस्य अध उपरि च दश-दश योजनानि मुक्त्वा मध्ये अशीति योजनेषु अणपन्निय प्रभृतय इति । योगशास्त्र के चौथे प्रकाश की टीका में तो अलग ही कहा है - 'रत्नप्रभा पृथ्वी में ही पहले सौ योजन में से ऊपर के दस और नीचे के दस- इस तरह बीस योजन छोड़कर शेष मध्य के अस्सी योजन में अणपन्नी आदि देव निवास करते . एषां वक्तव्यता सर्वा विज्ञेया प्राक्तनेन्द्रवत् । ... जाता द्वात्रिंशदित्येवं व्यन्तरामर नायकाः ॥२५७॥ इन व्यन्तरों का स्वरूप भी पूर्वोक्त व्यंतरों के समान ही समझना । इस कारणं से सब मिलकर बत्तीस व्यन्तरेन्द्र होते हैं । (२५७) भौमेय नगरेष्वेषु व्यन्तराः प्रायशः खलु । ... उत्पद्यन्ते प्राच्यभवानुष्ठिताज्ञानकष्टतः ॥२५८॥ पूर्व जन्म में अज्ञान पूर्वक कष्ट दायक तपस्या करने से प्राणी इस भूमि नगर में व्यन्तर रूप में उत्पन्न होते हैं । (२५८) मृतापाशविषाहार जलाग्नि क्षत्तुडादिभिः ।। भृगुपातादिभिश्चस्युः व्यन्तराः शुभभावतः ॥२५६॥ पाश-गले में फांसा, विषपान, अग्नि प्रवेश, ऊपर से गिरकर तथा भूख और प्यास सहन करने से भी जो मृत्यु अंगीकार करता है और उस मनुष्य का शुभं भाव हो तो वह यहां व्यन्तर होता है । (२५६)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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