________________
(१२)
सुवत्सश्च विशालश्च निकाये पंचमेऽधिपौ । षष्टे निकाये नेतारौ हास्य हास्यरती इति ॥२५॥
पांचवें निकाय के सुवत्स और विशाल नामक इन्द्र हैं और छठे निकाय के हास्य और हास्य रति नामक इन्द्र होते हैं । (२५४)
श्रेयोमहाश्रेयांसौ च निकाये सप्तमेऽधिपौ । पदगः पदगपतिः निकायस्याष्टमस्य तौ ॥२५५॥ ।
सातवें निकाय के श्रेयांस और महाश्रेयांस इन्द्र हैं तथा आठवें निकाय के पदग और पदगपति नामक इन्द्र कहे हैं । (२५५)
तथाहुः स्थानांगे - "दो अणपनिंदा पन्नता इत्यादि ॥" . . 'स्थानांग सूत्र में भी अणपन्नी आदि के दो इन्द्रादि कहे हैं।' एतेऽपि रत्नकांडस्य शतं शतमुपर्यधः ।... परित्यज्य वसन्त्यष्टशतयोजनमध्यतः ॥२५६॥
और ये भी रत्नकांड के सौ योजन ऊँचे और सौ योजन नीचे छोड़कर शेष आठ सौ योजन में निवास करते हैं । (२५६) .
तथा हुः प्रज्ञापनायाम् - "कहिणं भंते वाणमंतराणं देवाणं भोमेज्जा नगरा पण्णत्ता।कहिणं भंते वाणमंतरा देवा.परिवसन्ति ॥गोयमा से रयणप्प भाए पुढवीए रयणा मयस्स कंडस्स जोअण सहस्स वाहलस्य उवरि एगं जोअणसयं ओगा हेत्ता हेठावि एगं जोअणसयं वज्जेत्ता मज्झे अट्टस जो अणसए सु एत्थणं वाणमंतराणं तिरियम संखेज्जा भोमेज्जा नगरा वास सय सहस्सा भवन्ति इति मक्खाया। तेणं इत्यादि । तत्थणं बहवे वाणमंतरा देवा परिवसन्ति । तं जहां । पिसाया भूया जक्खा यावत् अणपन्निय पणपन्निय इत्यादि ॥"
इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना सूत्र में भी कहा है कि - 'श्री गौतम गणधर ने पूछा - हे भगवन्त ! वाणमंतर देवों के भूमि नगर कहां आये हैं ? और ये वाणमंतर देव कहां रहते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने कहा- हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नकांड में सौ योजन ऊपर और सौ योजन नीचे, इस तरह दो सौ योजन छोड़कर मध्य के आठ सौ योजन में वाणमंतर देवों का असंख्यातलक्ष