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तथोक्तम् - तहिं देवा वंतरिया वरतरुणीगीयवाइयरवेणम् ।
निच्चं सुहिया पमुइया गयंपि कालं न याणंति ॥१॥ अन्य स्थान पर भी कहा है कि - 'मनोहर तरुणियों के गीत-वाद्य के नाद के कारण व्यन्तर देव हमेशा इतने सुख एवं प्रमोद में रहते हैं कि काल कितना चला गया है, वे ऐसा नहीं जानते ॥'
व्यन्तराणाममी अष्टौ मूल भेदाः प्रकीर्तिताः ।
अष्टावान्तर भेदाः स्युः अणपर्णीमुखाः परे ॥२४६॥ तथापि - अणपन्नी पणपन्नी इसी वाई भूयवाई ए चेव ।
___ कंदी य महाकं दी कोहंडे चेव पयए अ ॥२५०॥
यहां जो व्यन्तर देवों के आठ भेद.कहे हैं वे मूल भेद हैं । इनके दूसरे आठ अणपन्नी आदि-अवान्तर भेद भी हैं। वह इस प्रकार से १- अणपन्नी, २- पणपन्नी, ३- ऋषिवादी, ४- भूतवादी, ५- कंदीत,६- महाकंदीत,७- कोहंड और ८- पतग हैं । (२४६-२५०).
प्राग्वत् प्रतिनिकायेऽत्र द्वौ द्वाविन्द्रावुदीरितौ ।
क्षेत्रयोः रूचकाद्याभ्यौत्तरा हयोरधीश्वरौ ॥२५१॥ - पहले के समान यहां भी आठ निकायों में प्रत्येक निकाय के दो-दो इन्द्र होते
और ये रूचक से दक्षिण में और उत्तर में आए हुए क्षेत्रों के अलग-अलग अधीश्वर होते हैं । (२५१)
इन्द्रौ सन्निहितः सामानिकश्चाद्यनिकाययोः ।
धाता विधातेत्यधिपौ निकाये च द्वितीयके ॥२५२॥ ...पहले अर्थात् अणपन्नी निकाय के व्यन्तरों के सन्निहित और सामानिक नामक दो इन्द्र हैं और दूसरे पणपन्नी निकाय के व्यन्तरों के धाता और विधाता नामक दो इन्द्र होते हैं । (२५२)
तार्तीयिकनिकायेन्द्रौ ऋषिश्च ऋषिपालितः । . चतुर्थस्य निकायस्य तावीश्वर महेश्वरौ ॥२५३॥
तीसरे ऋषिवादी निकाय के व्यन्तरों के ऋषि और ऋषिपालित नामक इन्द्र है तथा चौथे भूतवादी के ईश्वर और महेश्वर नामक इन्द्र हैं । (२५३)