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तेरहवां सर्ग योजनानां सहस्रं च मुक्त्वैकैकमुपर्यधः । मध्येऽष्ट सप्तितिसहस्राढये लक्षेक्षिताविह ॥१॥ वसन्ति भवनाधीशनिकाया असुरादयः । द्वशैतेऽपि द्विधा प्राग्वद्दक्षिणोत्तर भेदतः ॥२॥ युग्मं ।
अब यह तेरहवां सर्ग है । एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण वाली रत्नप्रभा में एक हजार योजन ऊपर और एक हजार नीचे इस तरह कुल दो हजार योजन सिवाय शेष रहे मध्य के एक लाख अठहत्तर हजार योजन में असुर आदि दस प्रकार के भवनपति देव रहते हैं और इनके १- दक्षिण दिशा के और २- उत्तर दिशा के दो भेद होते हैं । (१-२) .
तेषु प्रत्येकमिन्द्रौ द्वौ भवतो दक्षिणोत्तरौ । भवनेन्द्रा विंशतिः स्युरित्येवं चमरादयः ॥३॥
दस प्रकार के भवनपतियों में दक्षिण का एक और उत्तर का एक, इस तरह दो इन्द्र होते हैं इस तरह १०४२ = २० बीस भवनेन्द्र होते हैं । जैसे कि चमरेन्द्र आदि हैं । (३) . . . . .. तथोक्तम् - असुरानागसुवण्णा विज्जु अग्गी य दीव उदहीय ।
. दिसि पंवणथणि यदस विह भवणवइ तेसुदुदुइंदा ॥४॥ .. कहा है कि - १- असुर २- नाग कुमार ३- सुवर्ण कुमार ४- विद्युत कुमार ५- अग्नि कुमार ६- द्वीप कुमार ७- समुद्रकुमार ८- दिक् कुमार, ६- वायु कुमार और १०- स्तनित कुमार । ये दस जाति के भवन पति देव हैं और इन प्रत्येक में दो-दो इन्द्र हैं । (४). - अन्ये तु आहुः । नवति योजन सहस्त्राणामधस्तात् भवनानि ॥अन्यत्र च उपरितनमधस्तनं च योजन सहस्रं मुक्त्वा सर्वत्रापि यथा संभवमावासा इति ॥ आवासा नाम कायामानसन्निभा महा मंडपा इति लघु संग्रहणी वृत्तौ तत्वार्थ भाष्ये ऽपि । तत्र भवनानि रत्नप्रभायां बाहल्यार्धमवगाह मध्ये भवन्ति इति उत्तम् । इति ज्ञेयम् ॥ - कई आचार्यों का कहना है कि - 'नब्बे हजार योजन से नीचे भवनपति देव है।' तथा अन्यत्र इस तरह भी कहा है कि ऊपर और नीचे के हजार हजार योजन