SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३६) राक्षसों का कंडक, किन्नरों का अशोक, किं पुरुषों का चंपक, उरग जाति का नाग वृक्ष और गन्धर्वो का तेन्दुक वृक्ष होता है । (२१३-२१४) "चैत्य वृक्षा मणि पीठिका नामुपरिवर्तिनः सर्वरलमया उपरि छत्रध्वजादिभिः अलंकृता सुधर्मादि सभानामग्रतो ये श्रूयन्ते, ते एते इति संभाव्यन्ते ॥ये तु चिंधाई कलंबझए, इत्यादि ते चिह्नभृता एतेभ्यः अन्य एव इति । स्थानांग ८ सूत्र वृत्यौः।" "सुधर्मा आदि सभा के आगे मणि पीठिका के ऊपर, सर्वरत्नमय और छत्र ध्वजादि से शोभायमान चैत्य वृक्ष होते हैं - ऐसा सुना है । वह संभव है और कदंब आदि चिह्न रूप अन्य वृक्ष कहे हैं वे इससे अलग हैं । इस तरह स्थानांग सूत्र के आठवें सूत्र में और उसकी वृत्ति में भी कहा है।" प्रायः शैलकन्दरादौ यच्चरन्ति वनान्तरे । ___ ततः पृषोदरादित्वात् एते स्युः वानमन्तराः ॥२१५॥ ये व्यन्तर प्रायः वनान्तर में पर्वत की गुफा आदि में विचरने - भ्रमण करने वाले होने से वानमन्तर' कहलाते हैं। संस्कृत व्याकरण में वृषोदरादि नाम से प्रसिद्ध समास के नियम के आधार पर 'वनान्तरे चरन्तीति वानमन्तराः' इस तरह समास होता है । (२१५) भृत्यवच्चक्रवांद्यारा धनादिकृतस्ततः । व्यन्तरा वाभिधीयन्ते नरेभ्यो विगतान्तराः ॥२१६॥ अथवा सेवक के समान चक्रवर्ती आदि की आराधना आदि करने वाला होने से नरेभ्यो विगतान्तराः अर्थात् मनुष्य से बहुत अन्तर वाला नहीं होता है, इस तरह समास करने से भी व्यन्तर कहलाता है । (२१६) एकैकस्मिन्निकायेऽथ द्वौ द्वाविन्द्वावुदाहृतौ । दक्षिणोत्तर भेदेन कालाद्यास्ते च षोडश ॥२१७॥ इन आठ जाति के व्यन्तर देवों में, प्रत्येक जाति के दो-दो इन्द्र कहे हैं - १- दक्षिण दिशा का और २- उत्तर दिशा का । इस तरह समग्र सोलह इन्द्र होते हैं । (२१७) कालश्चैव महाकालः पिशाचचक्रवर्तिनौ । सुरूपः प्रतिरूपश्च भृतेन्द्रौ दक्षिणोत्तरौ ॥२१८॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy