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( ३३ ) अथैतस्यां रत्नकांडस्याधस्तनं तथोर्ध्वगम् । विमुच्य शतमेकैकं मध्ये ऽष्टशत योजने ॥ १६३॥ असंख्येयानि भौमेय नगराण्यासते सदा । बर्हि विभागे वृत्तानि चतुरस्त्राणि चान्तरे ॥१६४॥ अधोभागेऽनुकुर्वन्ति चारुपुष्कर कर्णिकाम् । गम्भीरखात परिखाप्राकारालंकृतानि च ॥१६५॥ शतघ्न्यादिं महायंत्र जटिलानि समन्ततः । दुःप्रवेश्यान्ययोध्यानि गुप्तानि श्री भृतानि च ॥१६५॥ उल्लासिपूर्ण कलश तोरण द्वार वन्ति च । अनारतं रक्षितानि दण्डिभिः किंकरामरैः ॥१६७॥ परिष्कृतानिं कुसुमैः पंचवर्णैः सुगन्धिभिः । काकतुंड तुकादिधूप सौरभ्यवन्ति च ॥ १६८ ॥ षड्भि कुलकम् । अब हजार. योजन के पहले रत्नकांड में ऊपर और नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर बीच के आठ सौ योजन में असंख्य भूमि नगर हैं वे बाहर से गोल हैं, अन्दर चौकोर और नीचे के भाग में कमल की कर्णिका के समान हैं। इनके आस-पास गहरी खाई और सुन्दर किला शोभ रहा है तथा शतघ्नी अर्थात् तोप आदि महायंत्रों से युक्त हैं, दुष्प्रवेश्य हैं, अयोध्य हैं, गुप्त हैं एवं समृद्धि पूर्ण हैं। इन नगरों में चमकते पूर्ण कलश और तोरण वाले दरवाजे लगे हुए हैं और दंडधारी देव किंकर निशदिन इनका रक्षण किया करते हैं। वहां पंचरंगी पुष्पों की सुगन्ध, अगुरु तथा किंदरू आदि धूप की सुवास लगातार फैल रही है । (१६३ से १६८)
जम्बूद्वीपो पमानानि विष्कंभायाममानतः । उत्कृष्टानि विदेहानुकारीणि मध्यमान्यपि ॥ १६६ ॥ अपि यान्यल्प मानानि निरूपितानि तान्यपि । भरत क्षेत्र सदृशान्येतेषु च वसन्त्यमी ॥ २०० ॥
ये जो नगर होते हैं वे उत्कृष्ट बड़े से बड़े जम्बू द्वीप के समान होते हैं । मध्य
नगर छोटे होते हैं । वे महाविदेह के समान हैं और जो छोटे होते हैं वह भी भरत क्षेत्र के समान होते हैं । (१६६-२००)
अष्टधा व्यन्तरा देवा महासमृद्धिशालिनः ।
पिशाचा भूतयक्षाख्या राक्षसाः किन्नरा अपि ॥ २०१ ॥