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________________ (३२) ततस्तनूभवन्नेष धनवातस्य सर्वतः 1 आवृत्य वलयं तस्थौ वलयाकृतिनात्मना ॥ १८७॥ अब तीसरा वल तनुवात का है । तनुवात घनवात के नीचे साथ में ही रहता है । यह तनुवात मध्य में घनवात से असंख्य गुणा मोटाई वाला है, फिर प्रदेश घटते जाने से हीन होता जाता घनवातरूप वलय को वलयाकार से लिप्त कर रहता है । (१८६-१८७) तनुवातस्य वलये विष्कम्भः परिकीर्त्तितः । एकं योजनमध्यर्द्धमुच्चत्वं पुनरुक्तवत् ॥१८८॥ तनुवातोऽप्यसौतस्थावाधारेण विहायसः । तच्च प्रतिष्ठितं स्वस्मिन्नसंख्य योजनोन्मितम् ॥१८६॥ तनुवात के वलय की चौड़ाई आखिर - अन्त में डेढ़ योजन है और ऊँचाई . पूर्ववत् है । यह तनुवात आकाश के आधार पर रहता है और आकाश असंख्य योजन प्रमाण का रहता है । (१८८-१८६) सप्तस्वपिमहिष्वेवं घनोदध्यादयो मताः । वलयानां तु विष्कम्भो यथास्थानं प्रवक्ष्यते ॥ १६०॥ जिस तरह इस रत्नप्रभा पृथ्वी के चारों ओर घनोदधि आदि तीन वलय रहते हैं उसी तरह अन्य छः पृथ्वी में भी रहते हैं । इन वलयों का प्रमाण आगे उचित स्थान पर कहा जायेगा । (१६०) भाति भूः स्व समश्रेणि स्थायिभिर्वलयैस्त्रिभिः । पूर्णेन्दुवत्परिधिभिः सुधा कुंडमिवोरगैः ॥ १६१ ॥ स्व समान श्रेणि में रहे तीन वलयो के कारण यह रत्नप्रभा पृथ्वी, चारों तरफ परिधि के कारण जिस तरह पूर्ण चन्द्र शोभता है, वैसे शोभती है और लिपटे हुए भुजंगों (सर्पों) के कारण अमृतकुंड के समान शोभ रही है। (१६१) भवेत्येवमलोकश्च धर्मापर्यन्त भागतः । यो जनैर्दशभिर्द्वाभ्यामतिरिक्तैः समन्ततः ॥ १६२ ॥ इस तरह से 'धर्मा' के पर्यन्त भाग से फिरते तीन प्रकार के वलयों का ६+४ + १ इस तरह कुल मिलाकर १२ योजन होता है। इस बारह योजन के बाद अलोक आता है । (१६२ )
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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