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बड़ी कड़ाही में रखा, जमा हुआ सख्त घी का घट- पिंड हो, वह घनोदधि है । इसके आधार पर यह पृथ्वी रही है । (१७६)
योजनानां सहस्राणि विंशतिः परिकीर्तितम् । घनोदधेमध्यभागे बाहल्यं क मतस्ततः ॥
१०॥ प्रदेशहान्यासौ हीयमानोऽत्यन्ततनू भवन् ।
पृथ्वी वलयाकारेण स्वयमावृत्य तिष्ठति ॥८१॥ युग्मं । . घनोदधि मध्य भाग में बीस हजार योजन मोटा है और उसके बाद अनुक्रम से प्रदेश के घटने से यह घनोदधि पतला होता जाता है और आखिर में अत्यन्त सूक्ष्म हो जाता है, जैसे पृथ्वी वलयाकार रूप से स्वयं को लिप्त कर रही हो । (१८०-१८१) .
वलयास्यास्य विष्कम्भः प्रज्ञप्तो योजनानि षट् । उच्चत्वं तु वसुमती वाहल्यस्यानुसारतः ॥१८२॥
आखिर में इस वलय की चौड़ाई छ: योजन है और उसकी लम्बाई पृथ्वी की मोटाई के समान (१८००००) योजन की है । (१८२) .. असौ घनोदधिरपि धनवाते प्रतिष्ठितः ।
असंख्यानि योजनानि मध्ये तस्यापि पुष्टता ॥१८३॥ प्रदेशहान्या तनुतां भजमानो घनोदधेः ।
आवृत्य वलयं तस्थौ वलयाकृति नात्मना ॥१८४॥ __घनोदधि भी घनवायु के ऊपर रहता है । यह घनवायु मध्यभाग में असंख्य योजन की मोटाई में है परन्तु फिर प्रदेश के घटने से सूक्ष्म होते जाते घनोदधि के वलय को वलयाकार रूप में लिप्त कर रहता है । (१८३-१८४)
अस्यापि वलयस्यैवं मानमाद्यैरूदीरितम् । .. चतुष्टयी योजनानां सार्थोच्चत्वं तु पूर्ववत् ॥१८॥
आद्य पुरुष ने इस वलय का प्रमाण अन्तिम में साढ़े चार योजन का कहा है, ऊंचाई तो पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए । (१८५)
घनवातोऽपि सततं तनुवाते प्रतिष्ठितः । अस्यापि मध्ये बाहत्यमसंख्यजं धननिलात् १८६॥