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अस्य वंशः सप्तमोऽपि क्रमेणैवं क्षयं गतः । कालेन तस्य नामादि समस्तमस्तमीयिवत् ॥१५३॥
इतने में उसके माता-पिता की आयुष्य पूर्ण होने से मृत्यु हो गयी। अनुक्रम से पुत्र का आयुष्य पूर्ण हुआ और वह भी मर गया । उसके बाद कुछ काल में उसके अस्थि-मज्जा भी नष्ट हो गये । इतना हुआ तब तक भी वे देव लोक के अन्तिम विभाग में नहीं पहुँच सके । उस पुरुष की अनुक्रम से सात पीढ़ी हो गई हों और उनका नाम आदि भी नष्ट हो जाय, तब भी वे देव लोक के अन्त का पार नहीं प्राप्त कर सकते । (१५१-१५३)
अथास्मिन् समये कश्चित् सर्वज्ञं यदि पृच्छति । क्षेत्रं तेषां किमगतं गतं वा बहुलं प्रभो ॥१५४॥ तदादिशेज्जिनः तेषां गतं बह्व गतं मितम् । गतादन्यदसंख्याशं संख्यघ्नमगताच्च तत् ॥१५५॥
उस समय कोई मनुष्य केवली भगवन्त से प्रश्न करे कि 'हे प्रभु ! उस देव ने कितना रास्ता पार किया है? अब उसे कितना रास्ता पार करना है?' तब केवली भगवन्त उत्तर देते हैं कि उसने बहुत मार्ग पार कर लिया है अब थोड़ा रास्ता पार करना है । नहीं पार किया मार्ग पार किए पार मार्ग से असंख्यातवें भाग का है और पार किया मार्ग, नहीं किए मार्ग से संख्यात गुणा है । (१५४-१५५)
संवत्तिर्त चतुर स्त्री कृतस्य लोकस्य मानमेतदिति । । सम्भवति यथावस्थित लोके तु तस्य वैषम्यात् ॥१५६॥
इति भगवती शतक ११ उद्देशे १०॥ लोक का यह मान संवर्तित करने पर और चौखण्ड घन रूप करने पर ही लोक संभव है । यह लोक जिस तरह स्थित है इसमें तो यह असंभव है । (१५६)
इस प्रकार भगवती सूत्र के ग्यारहवें शतक के दसवें उद्देश में कहा है।
वसन्ति तत्राधोलोके भवनाधिप नारकाः । तिर्यक् च व्यन्तर नराब्धि द्वीप ज्योतिषादयः ॥१५७॥ वैमानिकाः सूराः सिद्धा ऊर्ध्व लोकै वसन्ति च । इति सामान्यतो लोकस्वरूपमिह वर्णितम् ॥१५८॥ इसके अन्दर अधो लोक में भवनपति देव और नारकी जीव रहते हैं, तिर्यक्