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(२४) तथास्त्यधोलोक खंडं देशोन सप्तरज्जुकम् । बाहल्ये नोपरितनं त्वधिक पंच रज्जुकम् ॥१३१॥ ततश्चाधस्तने खंडे न्यूनं रज्जुद्वयं किल । अतिरिक्तमतोऽस्यार्थे द्वितीयस्मिन्निवेशयेत् ॥१३२॥ सर्वस्यास्य चतुरस्त्रीकृतस्य भवति क्वचित् । रज्ज्व संख्येय भागाढ्या बाहल्यं रज्जवो हि षट् ॥१३३॥ तथापि व्यवहारेण बाहल्यं सप्त रज्जवः । . .
मन्यते व्यवहारो हि वस्तुन्यूनेऽपि पूर्णताम् ॥१३४॥
इस तरह संयोजन करते अधोलोक खंड की ऊँच्चाई सात रज्जु से अतिरिक्त -अधिक है। उसकी ऊपर से यानि वहां से लेकर ऊर्ध्व लोकार्ड की मोटाई की पूर्णता की प्राप्ति के लिए स्थापना करना । इस प्रकार करने से इसकी मोटाई पांच रज्जु से कुछ अधिक होगी । अब अधो लोक खंड की मोटाई लगभग सात रज्जु है और इसकी मोटाई लगभग पांच रज्जु आती है, अतः अधो लोक लगभग दो रज्जु बढ़ जाता है। यह बढ़ा हुआ भाग इसके अन्य अर्ध में डालकर इन सबको चौखंडा करना । इससे इसकी मोटाई छः रज्जु से ऊपर रज्जु का असंख्यवां भाग आयेगा। अर्थात् सात रज्जु से तो कम रहेगा, फिर भी व्यवहार से यह सात रज्जु गिना जायेगा क्योंकि व्यवहार नय से कुछ कम वस्तु को भी पूर्ण रूप में कहा जाता है या माना जाता है । (१२६-१३४)
विम्भाकयामतोऽष्येवं देशोनाः सप्त रज्जवः। व्यवहारेण विज्ञेयाः संपूर्णाः सप्त रंज्जवः ॥१३५॥
इसी ही तरह चौड़ाई और लम्बाई भी सात रज्जु से कुछ कम होने पर भी व्यवहार नय से पूरे सात रज्जु गिना जाता है । (१३५)
एवमेष सप्तरज्जुमानो लोको घनीकृतः । यत्र क्वाप्यागमेऽभ्रांश श्रेणिरूक्तास्य सा ध्रुवम् ।।१३६॥ अस्मिन् घनीकृते लोके प्रज्ञप्ता घनरज्जवः । त्रिचत्वारिंशताढ्यानि शतानि त्रीणि तात्विकैः ॥१३७॥
इसके अनुसार इस लोक का घन करने के लिए तीन ओर से समान होना चाहिए । इन तीनों का मान सात-सात रज्जु नहीं हुआ । आगम में कहीं-कहीं पर आकाश प्रदेश की श्रेणि कही है, वह निश्चय ही घनीकृत लोक की सात रज्जु ही