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से बारह भेद होते हैं । जैसे कि- पूर्व इशान, इशान और उत्तर इशान। इस तरह चारों विदिशाओं के लिए समझना चाहिए । प्रत्येक दिशा की एक-एक कल्पना करते चार प्रकार और एक ऊर्ध्व और दूसरी अधोदिशा । इस प्रकार कुल अठारह दिशा हुईं। उनमें प्रथम सोलह तिरछी हैं और ये शकट- गाड़ी की उधनी के समान रहते हैं । प्रज्ञापक के नजदीक में अत्यन्त थोड़ा और आगे बहुत विस्तार समझना । (६६-६७)
अथ प्रकृतम् -
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पृथ्व्यिो स्तुर्य पंचभ्योर्मध्ये यद्वियदन्तरम् । तदर्थेऽधस्तने न्यूनेऽधोलोकमध्यमीरितम् ॥६८॥
अब प्रस्तुत बात पर आते हैं- चौथी और पांचवीं नरक के बीच जो आकाश का अन्तर हैं उसके लगभग आधे नीचे के भाग में अधोलोक का मध्य कहा है
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अधस्तात् ब्रह्मलोकस्य रिष्टाख्य प्रस्तरे स्फुटम् ।
मध्यं सत्रोर्ध्व लोकस्य लोकनाथैर्विलोकितम् ॥६६॥
ब्रह्मलोक के नीचे रिष्ट नामक प्रतर में ऊर्ध्व लोक का मध्य है । इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान् ने देखा है । (६६)
यथा
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पूर्णेकररज्जुपृथुलात् क्षुल्लक प्रतरादितः । ऊर्ध्वगतेऽङ्गुलासंख्यभागे तिर्यग्विवर्द्धते ॥ १००॥
अंगुलस्यासंख्यंभागः परमत्रेति भाव्यताम् । ऊर्ध्वं गादगुलंस्यांशादशस्तिर्यग्गतो लघुः ॥१०१॥
तथा सम्पूर्ण एक रज्जु चौड़ा क्षुल्लक प्रतर से अंगुल का असंख्यातवां भाग ऊर्ध्व - ऊँचा जाये तब तिर्यक् अंगुल का असंख्यातवां भाग बढ़ता है । परन्तु यह तिरछा बढ़ा हुआ अंगुल का असंख्यातवां भाग ऊर्ध्वगत अंगुल के असंख्यातवें भाग से छोटा जानना । (१०० - १०१)
मधोऽपि ॥
एवं चोर्ध्व लोक मध्यं पृथुलं पंच रज्जवः ।
हीयते ऽतस्तथैवोर्ध्वं रज्जुरे कावशिष्यते ॥ १०२ ॥
इस तरह नीचे भी समझना । इस प्रकार वृद्धि होते ऊर्ध्वलोक के मध्य में