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________________ (१६) से बारह भेद होते हैं । जैसे कि- पूर्व इशान, इशान और उत्तर इशान। इस तरह चारों विदिशाओं के लिए समझना चाहिए । प्रत्येक दिशा की एक-एक कल्पना करते चार प्रकार और एक ऊर्ध्व और दूसरी अधोदिशा । इस प्रकार कुल अठारह दिशा हुईं। उनमें प्रथम सोलह तिरछी हैं और ये शकट- गाड़ी की उधनी के समान रहते हैं । प्रज्ञापक के नजदीक में अत्यन्त थोड़ा और आगे बहुत विस्तार समझना । (६६-६७) अथ प्रकृतम् - - पृथ्व्यिो स्तुर्य पंचभ्योर्मध्ये यद्वियदन्तरम् । तदर्थेऽधस्तने न्यूनेऽधोलोकमध्यमीरितम् ॥६८॥ अब प्रस्तुत बात पर आते हैं- चौथी और पांचवीं नरक के बीच जो आकाश का अन्तर हैं उसके लगभग आधे नीचे के भाग में अधोलोक का मध्य कहा है | (६८) अधस्तात् ब्रह्मलोकस्य रिष्टाख्य प्रस्तरे स्फुटम् । मध्यं सत्रोर्ध्व लोकस्य लोकनाथैर्विलोकितम् ॥६६॥ ब्रह्मलोक के नीचे रिष्ट नामक प्रतर में ऊर्ध्व लोक का मध्य है । इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान् ने देखा है । (६६) यथा - पूर्णेकररज्जुपृथुलात् क्षुल्लक प्रतरादितः । ऊर्ध्वगतेऽङ्गुलासंख्यभागे तिर्यग्विवर्द्धते ॥ १००॥ अंगुलस्यासंख्यंभागः परमत्रेति भाव्यताम् । ऊर्ध्वं गादगुलंस्यांशादशस्तिर्यग्गतो लघुः ॥१०१॥ तथा सम्पूर्ण एक रज्जु चौड़ा क्षुल्लक प्रतर से अंगुल का असंख्यातवां भाग ऊर्ध्व - ऊँचा जाये तब तिर्यक् अंगुल का असंख्यातवां भाग बढ़ता है । परन्तु यह तिरछा बढ़ा हुआ अंगुल का असंख्यातवां भाग ऊर्ध्वगत अंगुल के असंख्यातवें भाग से छोटा जानना । (१०० - १०१) मधोऽपि ॥ एवं चोर्ध्व लोक मध्यं पृथुलं पंच रज्जवः । हीयते ऽतस्तथैवोर्ध्वं रज्जुरे कावशिष्यते ॥ १०२ ॥ इस तरह नीचे भी समझना । इस प्रकार वृद्धि होते ऊर्ध्वलोक के मध्य में
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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