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वह इस प्रकार से :कर्माकर्म भूमिजान्तद्वीपं संमूर्छजा नराः । तथा द्वि त्रि चतुः पंचेन्द्रियास्तिर्यंच आहिताः ॥६१॥ कायाश्चतुर्द्धा पृथिवी जल तेजोऽनिला इति । . स्युः वनस्पतयो मूल स्कन्धानपर्व सम्भवाः ॥१२॥ षोडशैता दिशो देवनारकांगि समन्विताः । . ' ' भवन्त्यष्टादश भावदिशस्तीर्थंकरोदिताः ॥६३॥ त्रिभि विशेषकम् ॥
१- कर्मभूमि के मनुष्य, २- अकर्मभूमि के मनुष्य, ३- अन्तर्वीप के मनुष्य, ४- संमूर्छिम मनुष्य,५- द्वीन्द्रिय तिर्यंच,६- त्रीन्द्रिय तिर्यंच,७- चतुरिन्द्रय तिर्यंच, ८- पंचेन्द्रिय तिर्यंच,६- पृथ्वीकाय, १०- अपकाय, ११- तेजकाय, १२- वायुकाय, १३- वनस्पतिमूल, १४- उसका स्कंध, १५- इसकी शिखर, १६- इसका.पर्व, १७देव और १८- नारकी। इस तरह से अठारह भावं दिशा तीर्थंकर परमात्मा ने कही हैं । (६१-६३)
यत्र क्वचिदपि स्थित्वा प्रज्ञपको दिशां वलात् । निमित्तं वक्ति धर्मं वा गुरुः प्रज्ञापकाख्य दिक् ॥४॥
यह सातवें प्रकार की प्रज्ञापन दिशा है । किसी भी स्थान पर बैठकर निमित्तज्ञ निमित्त ज्ञान के बल से निमित्त कहता है अथवा गुरु धर्म का उपदेश करे वह प्रज्ञापक दिशा जानना । (६४)
यस्या दिश: संमुखस्थः प्रज्ञापकः प्ररूपयेत् । । धर्मं निमित्तादिकं वा सा पूर्वानुक्रमात्पराः ॥६५॥
जिस दिशा के सन्मुख रहकर उपदेशक धर्म का उपदेश-ज्ञान दे अथवा निमित्त आदि कहे, वह पूर्व दिशा और इससे अनुक्रम से दूसरी दिशा समझनी
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यत्र १
चाहिए । (६५)
एताश्चाष्टादश विधाः स्युस्तिर्यक् तत्र षोडश । विस्वस्तिस्त्रः प्रति विदिक दिक्ष्वेकैकेति कल्पनात् ॥६॥ शकटोद्धास्थिताः प्रज्ञापकोपान्तेऽति संकटाः । विस्तीर्णा बहिरूाधोयुक्ताश्चष्टादश स्मृता ॥६७॥ युग्मं । इसके भी अठारह भेद होते हैं । प्रत्येक विदिशा के तीन-तीन कल्पना करने