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तीसरी जो द्रव्य दिशा है वह आगम से और नो आगम से, इस तरह दो प्रकार से है । दिग् पद के अर्थ का बोध होता है परन्तु यदि इसमें चित्त का उपयोग आचरण न हो तो वह आगम से द्रव्य दिशा जानना और नो आगम से द्रव्य दिशा तीन प्रकार की होती है । दिक पद के अर्थ का जिसको बोध था उस बोध वाले के शरीर में जीव न हो वह ज्ञशरीर रूप प्रथम भेद है । दिक् पद अर्थ का बोध जिसको होगा वह जीव बालक हो अथवा ऐसा कोई भी हो वह दूसरा भेद है - भव्य शरीर । अब ज्ञशरीर को भव्य शरीर से व्यतिरिक्त हो वह तीसरा भेद कहलाता है । तेरह परमाणु वाला और उतने ही आकाश प्रदेश का अवगाहन कर रहे द्रव्य के आश्रित रही दिशा यह तीसरा भेद है । तेरह से कम परमाणु वाले द्रव्य से दिशा विदिशा की कल्पना नहीं हो सकती है, इसलिए दिशा की अपेक्षा से ये तेरह परमाणु जघन्य प्रमाण है । इस तीसरे प्रकार में नौ प्रदेशी तीन हाथ का चित्रण कर चारों दिशाओं में एक एक घर की वृद्धि करना । (८१-८६) ... क्षेत्राशास्त्वधु वोक्तास्तापाशाः पुनराहिताः ।
सूर्योदयापेक्षयैव पूर्वाद्याः ता यथाक्रमम् ॥७॥
चौथी क्षेत्र दिशा का वर्णन पूर्व में आ गया है। अब पांचवीं ताप दिशा के विषय • में कहते हैं । यह ताप दिशा सूर्य की अपेक्षा से ही कही है और वह अनुक्रम से पूर्व आदि दिशा है । (८७) ..
: तत्रं यत्रोदेति भानुः सा पूर्वानुक्रमात् पराः ।। .. विसंवदन्त एताश्च क्षेत्रदिग्भिः यथायथम् ॥८॥ तथा हि- रूचकापेक्षया या स्याइक्षिण क्षेत्रलक्षणा।
तापाशापेक्षया सा स्यादस्माकं ध्रुवमुत्तरा ॥८६॥ जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है वह पूर्व दिशा कहलाती है और इसी अनुक्रम से दूसरी दिशाएं जानना । इन दिशाओं के क्षेत्र दिशा के साथ में लक्षण नहीं मिलते हैं, क्योंकि रूचक की अपेक्षा से जो क्षेत्र दिशा दक्षिण कहलाती है वह
ताप दिशा की अपेक्षा से हमारी उत्तर दिशा है । (८८-८६) ... आष्टादशविधा भावदिशस्तु जगदीश्वरैः । ... प्रोक्ता मनुष्यादि भेदभिन्ना इत्थं भवन्ति ताः ॥१०॥
छठी भाव दिशा है, इसके जिनेश्वर भगवान् ने मनुष्य आदि के भेद के , कारण अठारह भेद कहे हैं । (६०)