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लोकमाश्रित्य साद्यन्ता एताः सर्वा अपि स्फुटम्। साद्यन्ता विनिर्दिष्टा अलोकापेक्षया पुनः ॥७७॥
यह सर्व दिशा लोक की अपेक्षा से साद्यन्त है परन्तु अलोक की अपेक्षा से सादि अनन्त कहलाता है।
दिशामन्येऽपि भेदाः नाम दिक् स्थापनाख्यदिक् । द्रव्य क्षेत्र ताप भाव प्रज्ञापकाभिधा दिशः ॥७८॥ ..
और एक दूसरे प्रकार से दिशाओं के सात भेद भी होते हैं । जैसे कि १- नाम । दिशा, २- स्थापना दिशा, ३- क्षेत्र दिशा, ४- द्रव्य दिशा, ५- ताप दिशा, ६- भाव दिशा और ७- प्रज्ञापक दिशा ! (७८)
यद द्रव्यस्य सचित्तादेः दिगित्येवं कताभिधा। . सा नामदिग् विनिर्दिष्टा शिष्टैर्दुष्ट जगत्त्रयैः ॥७६॥ ... .
सचित आदि किसी भी द्रव्य को अमुक दिशा का नाम देना, उसे जिनेश्वर भगवन्त ने 'नामदिशा' कहा है । (७६). .
पट्टादौ चित्रितस्याथ जम्बू द्वीपादिकस्य यत् । दिग्विदिक् स्थापनं सोक्ता स्थापनाशा विशारदैः ॥१०॥
पट्ट आदि में चित्रण कर जम्बू द्वीप आदि की दिशा विदिशा में स्थापना करना उसे 'स्थापना दिशा' ऐसा नाम दिया है । (८०)
स्यात् द्रव्यदिगागमतो नोआगमत इत्यपि । . दिक पदार्थ बुधस्तत्रांनुपयुक्तः किलादिमा ॥१॥ विधा च नोआगमतः प्रज्ञप्ता द्रव्यतो दिशः । तत्राद्या दिक् पदार्थज्ञशरीरं जीव वर्जितम् ॥८२॥ . द्वितीया च दिक् पदार्थ ज्ञास्यन् बालादि रुच्यते। ज्ञशरीर भव्य देह व्यतिरिक्ताप्यथोच्यते ॥३॥ या प्रवृत्ता समाश्रित्य द्रव्यं त्रयोदशाणुकम् । तावद्वयोमांशावगाढं द्रव्यदिक् सा निवेदिता ॥४॥ इतो न्यूनाणुजाते तु दिग्विदिक् परिकल्पनम् । न स्यात् द्रो ततश्चैतज्जघन्यं दिगपेक्षया ॥५॥ त्रिबाहुकं नव प्रादेशिकं समभिलिख्य च । . कार्यैकैक गृहवृद्धिः ध्रुवं दिक्षु चतसृषु ॥८६॥