________________
(१२) ततो लोकस्य वृतत्वात्प्रति पंक्ति प्रदेशकौ । हीयते तेन लोकान्ते पंक्तिश्चतुः प्रदेशिका ॥६४॥
तथा लोक के वर्तुलाकार - गोलाकार होने से आगे जाने पर पंक्ति-पंक्ति से दो-दो प्रदेश घटते जाते हैं और इससे लोक के अन्त में रही पंक्ति चार प्रदेशों की होकर रहती है । (६४)
यदि लोक वर्तुलाकार है तो खंडुक की गिनती में प्रत्येक पंक्ति में तद्गुणा क्यों किया? तद्गुणा खंडुक तो चौरस लोक हो तभी हो सकता है ? तत्व बहुश्रुत गम्य।
एकतो द्विप्रदेशत्वं चतुः प्रदेशतान्यतः । ततो हि मुरजाकारो भवेल्लोक दिशामिह ॥६५॥
इसी तरह एक ओर से द्वि प्रदेशता और दूसरी ओर से चतुः प्रदेशता होती है। इन लोक दिशाओं का मुरज जैसा आकार होता है । (६५) . .
एकतो यस्य संकीर्ण मुखं पृथुलमन्यतः ।
स मृदंग विशेषः स्यान्मुरजेति प्रसिद्धि भाक् ॥६६॥
जिसका मुख एक ओर संकुचित होता है और दूसरी ओर से चौड़ा होता है, इस प्रकार के मृदंग को मुरज कहते हैं । (६६)
यथैकस्मिन् ख प्रतरे भाविता मुरजाकृतिः । . .. सर्वेष्वपि प्रतरेषु तथा भाव्या दिगाकृतौ ॥६७॥
एक आकाश प्रतर में जैसे मृदंग की आकृति कही है वैसी ही सर्व प्रतर में दिशाओं की भी समझ लेना । (६७) .
शकटोज़ स्थिताः किंचालोक व्यपेक्षया दिशः। तुंडं तु शकटस्यास्य रूचकोपरि भाव्यताम् ॥६८॥ .
इस लोक की अपेक्षा से दिशा उलटे शकट-गाड़ी के समान रही है, उसमें गाड़ी का मुख रूचक के ऊपर रहने का चिन्तन करना । (६८) ..
रूचकस्यो परितनं यत्प्रदेश चतुष्टयम् । विमलाया दिशस्तच्च प्रोक्तमादितया जिनैः ॥६६॥
रूचक के ऊपर जो चार आकाश प्रदेश हैं वहां से विमला-ऊर्ध्व दिशा का प्रारंभ जिनेश्वर ने कहा है । (६६)