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________________ ( ११ ) १ पूर्व, २- दक्षिण पूर्व (अग्नि), ३- दक्षिण, ४- दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य), ५ - पश्चिम, ६ - उत्तर पश्चिम (वायव्य), ७ - उत्तर ८ - उत्तरपूर्व (ईशान ), ६- ऊर्ध्व और १० - अध:, इस तरह दस दिशाये हैं। इनमें छः शुद्ध दिशा कहलाती हैं और शेष चार अग्नि नैऋत्य, वायव्य और ईशान विदिशा कोण कहलाती हैं । (५७-५८ ) - विजयद्वारदिक् प्राची प्रादक्षिण्यात्ततः पराः । एतासां देवतायोगान्नामान्यूचुः पराण्यपि ॥५६॥ विजय द्वार की दिशा वह पूर्व दिशा और इसके दाहिने ओर से प्रदक्षिणा देते अनुक्रम से शेष अन्य दिशा - विदिशा आती हैं । (५६) I ऐन्द्याग्नेयी तथा याम्या नैर्ऋती किंच वारुणी । वायव्येतः परा सौम्येशानी च विमला तमा ॥६०॥ इन दसों दिशाओं का देव सम्बन्ध होने के कारण इनका दूसरा भी नाम है। वह इस तरह :- १ - ऐन्द्री, २- आग्नेयी, ३- यामी, ४- नैर्ऋती, ५ - वारुणी, ६- वायव्या, ७- सौम्या, ८- इशानी, ६ - विमला और १० - तमा । (६०) रूचकानन्तरं दिक्षु द्वौ द्वौ व्योम्नः प्रदेशकौ । विदिक्षु पुनरेकैक एषाद्या पंक्तिराहिता ॥ ६१॥ रूचक प्रदेश के बाद प्रत्येक दिशा में दो-दो और प्रत्येक विदिशा में एकएक आकाश प्रदेश है । इसे प्रथम 'पंक्ति' कहते हैं । (६१) द्वितीयस्यां पुनः पंक्तौ चत्वारो दिक्प्रदेशकाः । एवं द्वौ द्वौ विवर्धेते प्रति पंक्ति प्रदेशकौ ॥६२॥ दूसरी पंक्ति में चार दिक् प्रदेश हैं और इसी तरह प्रत्येक पंक्ति में दो-दो प्रदेश बढ़ते जाते हैं । (६२) 1 एवं च असंख्येय तमा पंक्ति रसंख्येय प्रदेशिका । - 'लोकान्तं स्पृशति द्वाभ्यामन्ताभ्यां भृशमायता ॥ ६३ ॥ इस तरह होने से असंख्य आकाश प्रदेशों को लेकर पंक्तियां भी असंख्य होती हैं। इसमें से अन्तिम पंक्ति अपने दो छोरों से लोक के अन्त अर्थात् सिरे का स्पर्श करके रहती है । (६३)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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