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(१०) धर्मायां सर्वतः क्षुल्लमत्रास्ति प्रतर द्वयम् । मंडकाकारमेकैकं ख प्रदेशात्मकं च तत् ॥५१॥ रूचकेऽत्र प्रदेशानां यच्चतुष्कद्वयं स्थितम् । तत्समश्रेणिकं तच्च विज्ञेयं प्रतर द्वयम् ॥५२॥
धर्मा पृथ्वी के सर्वत्र क्षुल्लक - छोटे दो प्रतर हैं । उसमें प्रत्येक का मंडक समान आकार होता है और वह प्रत्येक एक आकाश प्रदेश प्रमाण वाला है । यहां रूचक के आकाश प्रदेश की जो दो चौकड़ी सम श्रेणि में रही हैं इससे ही ये दो क्षुल्लक प्रतर समझना । (५१-५२).
लोकवृद्धिरूर्ध्वमुखी तयोरुपरि संस्थितात् ।। ..
अधः स्थितात्पुनः तस्माल्लोक वृद्धिरधोमुखी ॥५३॥
इन दोनों प्रतर के ऊपर लोक वृद्धि ऊर्ध्व मुखी है और नीचे इसकी अधोमुखी वृद्धि भी होती है । (५३)
तस्मिंश्च लोक पुरुष कटीतटपटीयसि । मध्यभागे सम भूमि ज्ञापको रूचकोऽस्ति यः ॥५४॥ स एव मध्य लोकस्य मध्यमुक्तं महात्मभिः । दिग्विदिग् निर्गमश्चास्मान्नाभेरिव शिरोद्गमः ॥५५॥ युग्मं ।
लोकात्मक पुरुष के कटी तट रूप मध्यभाग में जो सम भूतल वाला रूचक प्रदेश है उसे ही महात्माओं ने. मध्य-तिरछे लोक का मध्य कहा है और वहां से ही दिशा और विदिशा निकली हैं, जैसे नाभि प्रदेश में से नसें निकलती हैं। (५४-५५)
तथाहुःअट्ट पएसो रूअगो तिरिअलोगस्स मज्झयामि । एस पभावो दिशाणं एसेव भवे अणुदिसाणम् ॥५६॥
इस सम्बन्ध में कहा है कि- तिरछे लोक के मध्य भाग में आठ प्रदेश वाले रूचक हैं और यही दिशाओं का और विदिशाओं का उत्पत्ति स्थान है । (५६).
पूर्वा पूर्वदक्षिणा च दक्षिणा दक्षिणापरा । . पश्चिमा पश्चिमोदीची चोत्तरोत्तर पूर्विका ॥५७॥ . ऊर्ध्वा तथाधस्तनी च दशैवं गदिता दिशः । दिशः षट् तत्र शुद्धाख्या चतस्रो विदिशोऽपराः ॥८॥ युग्मं ।