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(८) ऊर्ध्वमध्याधः स्थितत्वाद्वयपदिश्यन्त इत्यमी । यद्वोत्कृष्ट मध्यहीन परिणामात्तथोददिताः ॥३८॥
सबसे नीचे, मध्य में और सर्व से ऊपर रहने से अर्थात् स्थान परत्व कहलाता है अथवा इसके हीन, मध्य और उत्कृष्ट परिणाम होने के कारण इसके इस प्रकार नाम पड़े हैं । (३८) यदुक्तं भगवती वृत्तौ स्थानांग वृत्तौ च -
अहवा अहपरिणामो खेत्तणु भावेण जेण ओसन्नम् । . असुहो अहो ति भणिओ दव्वाणं तेणहोलोगो ॥३६॥ उनु उवरि जं ठिअंसुहखेतं खेत्तओ अदव्वगुणा। . उप्पज्जति सुभावा जेण तओ उन लोगोति ॥४०॥ मज्झणुभावंखेत्तंजंतंतिरियंतिवयणपज्जवओ। भणइ तिरिय विसालं अओ यतं तिरिय लोगोत्ति ॥४१॥
भगवती तथा स्थानांग सूत्रों की वृत्ति में कहा है कि - इस लोक का अधः आदि भेद परिणाम को लेकर अथवा क्षेत्र के स्थान को लेकर कहा है । जैसे कि बहुत सारा जहाँ द्रव्यों का अशुभ परिणाम संभव है इसलिए वह अशुभ अधोलोक है अथवा अधः नीचे रहा है इसलिए अधोलोक है। ऊर्ध्व भाग में रहा है इसलिए अथवा वहां ऐसे क्षेत्र प्रभाव को लेकर शुभ परिणामी द्रव्यों का होना संभव है इसलिए ऊर्ध्व लोक कहलाता है । तथा मध्यम परिणाम वाले द्रव्यों की संभावना का योग होने के कारण अथवा मध्य में क्षेत्र आने से या तिर्यंग होने से तिर्यंग लोक कहा जाता है। (३६-४१)
रत्न प्रभाया उपरि क्षुल्लक प्रतर द्वये । मेर्वन्तः कन्दोर्ध्वभागे रूचकोऽष्ट प्रदेशकः ॥४२॥
रत्नप्रभा नारकी के ऊपर दो क्षुल्लक प्रतर में मेरु के अन्दर के कंद के ऊर्ध्व भाग में आठ प्रदेश वाले रूचक' आए हैं । (४२)
तत्रोपरिस्थे प्रतरे ख प्रदेश चतुष्टयम् । । विद्यते गोस्तनाकारं तथैवाधस्तनेऽपि तत् ॥४३॥ ख प्रदेशाष्टकं तच्चोपर्यधो भावतः स्थिताम् । चतुरैश्चतुरस्त्रात्म प्रोच्यते रूचकाख्यया ॥४४॥