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. भवेत्स तद्गुणो वर्ग इति वर्गस्य लक्षणम् । .. यथाष्टाविंशतेः सप्तशती चतुरशीतियुक् ॥३२॥ - प्रत्येक संख्या को उसी संख्या द्वारा गुणा करने से जो आता है वह उस संख्या का वर्ग कहलाता है । जैसे कि अट्ठाईस को अट्ठाईस से गुणा करके सात सौ चौरासी आता है, वह अट्ठाईस का वर्ग कहलाता है । (३२) ___ एवं सर्वत्र स्थापना विलोक्या ॥ यह सारा ग्रन्थ के प्रारंभ में रखी लोक नालिका देखने से समझ में आयेगा। खंडुकानां शतान्यष्टावधिकानि च षोडश । इष्टलोके दृष्टलोकैरुक्तानि सर्व संख्यया ॥३३॥
श्री केवल ज्ञानियों ने दृष्टलोक में खंडुकों की सर्व संख्या आठ सौ सोलह है - इस तरह कहा है । (३३) .
प्रोक्तं वर्गितलोके च सर्वाग्रं खंडुकोद्भवम् ।
सहस्राणि पंचदश द्वे शते नवतिश्च षट् ॥३४॥
तथा (वर्ग) करने पर लोक के सर्व खंडुकों की कुल पंद्रह हजार दो सौ छ: की संख्या होती है । (३४) . , लोकस्य वर्ग करणे ज्ञेयमेतत् प्रयोजनम् । .
प्रमाणं सर्वतोऽनेन लोकस्य भवति ध्रुवम् ॥३५॥ • तथा वर्ग करने का प्रयोजन यह है कि इससे इसका अर्थात् लोक का सभी तरफ से निश्चय प्रमाण क्षेत्रफल निकलता है। (३५)
दश हस्त पृथोर्यद्वत्तावद्दीर्घस्य वेश्मनः । .... दशानां वर्ग करणे सर्व क्षेत्रफलं भवेत् ॥३६॥
. जैसे कि दस हाथ चौड़ा और उतना ही लम्बा रखने से, दस का वर्ग करने से सौ हाथ क्षेत्रफल निकलता है । (३६) .
षट्पंचाशत्खंडुकोच्चयथोक्त पृथुलस्य च । लोकस्यास्य त्रयो भेदा मध्याधऊर्ध्व भेदतः ॥३७॥
छप्पन खंडुक ऊँचा और पूर्व कहा उतना चौड़ा - ऐसा यह लोक अधः, मध्य और ऊर्ध्व - इस तरह तीन प्रकार का कहलाता है । (३७)