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प्रयोजन त्वेषाम् - यथानभश्चतुर्भागमारूडेऽके प्रतीयते । प्रथमा पौरूषी मध्यमहश्च व्योममध्यगे ॥६६७॥. चतुर्भागावशेषं च नमः प्राप्तेऽन्त्य पौरूषी ।
ज्ञायन्ते रजनीयामाः अप्येभिरूडुभिस्तथा ॥६६८॥ .. इस नक्षत्र का प्रयोजन इस प्रकार है :- जैसे आकाश के चार विभाग पड़े हो, उन चार में से पहले विभाग में सूर्य पूर्ण करे वहां पहली पोरसी होती है, दूसरे विभाग पूर्ण करे अर्थात् आकाश के मध्य में आए, तब मध्याह्न कहलाता है । और अन्तिम चौथे विभाग पूर्ण करे तब अन्तिम पोरसी की प्रतीति होती है । वैसे इन नक्षत्रों द्वारा रात्रि के पहर जानने में आते है । (६६७-६६८)
तथाहु : उत्तराध्ययने :जण्णेइ जया रतिं णखतं तं मिणह चउप्पभागे।
संपत्ते विरमेजा सझाओ पओसकालंमि ॥६६६॥ "..: तम्मेव य ख्खले गयण चउभागसावसेसंमि ।
वेरत्तियंपि कालं पहिलेहिता मुणी कुणइ ॥७००॥ . इस विषय में उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेख मिलता है कि - रात्रि के चार विभाग कल्पना कर, चार में से पहले विभाग में नक्षत्र होते है, तब प्रदोष समझना
और उसमें मुनि ने स्वाध्याय ध्यान से विराम प्राप्त करना, यही नक्षत्र जब पीछे आकाश के चौथे भाग में आता है, उस समय मुनि पग्लेिहण करके वैरात्रिक काल सम्बन्धी क्रिया करे । (६६६-७००)
ग्रन्थान्तरे च - दह तेरह सोलह में विसमेइ सरियाओ णक्खता। मत्थयगयंमि णेयं रयणी जा भाण परिमाणम् ॥७०१॥
और अन्य ग्रन्थ में इस तरह कहा है कि - सूर्य नक्षत्र से दसवां तेरहवां, सोलहवां और बीसवां अनुक्रम से जब आकाश के मध्य में आता है, तब रात्रि का अनुक्रम से प्रथम, दूसरा तीसरा या चौथा पहर बीत गया है, ऐसा समझना ।
"शीतकाले च दिनाधिक मानायां रात्री सूर्यभात् एकादश चतुर्दश