SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३) रत्नप्रभा नारकी के ऊपर तल से पहले दो देवलोक के विमान आ जाते हैं, वहां तक आठवां 'रज्जु' होता है । (११) तत आरभ्य नवमी महेन्द्रान्ते प्रकीर्तिता । अतः परं तु दशमी लान्तकान्ते समाप्यते ॥१२॥ और वहां से चौथे माहेन्द्र देवलोक का अन्त आए वहां तक नौंवां रज्जु है और वहां से छठे लान्तक देवलोक के अन्त तक दसवां रज्जु पूरा होता है । (१२) भवेदेकादशी पूर्णा सहस्रारान्त सीमनि । स्यात् द्वादशयच्युतस्यान्ते क्रमादेवं त्रयोदशी ॥१३॥ भवेत् ग्रैवेयकस्यान्ते लोकान्ते च चतुर्दशी । धर्मोर्ध्व भागादूर्वाधः सप्त सप्तेति रज्जवः ॥१४॥ युग्मं ॥ वहां से लेकर आठवें सहस्रार देवलोक की सीमा पूर्ण हो जाय वहां तक ग्यारहवां रज्जु है और वहां से बारहवें अच्युत देवलोक की सीमा पूर्ण हो जाय वहां बारहवां रज्जु सम्पूर्ण होता है। इस तरह अनुक्रम से ग्रैवेयक के अन्तिम तक तेरहवां और लोक के अन्त में चौदहवां रज्जु पूर्ण होता है । इस तरह धर्मा नारकी के ऊपर के भाग सात और नीचे के भाग सात - इस प्रकार समग्र चौदह रज्जु लोक होते हैं। (१३-१४) . . "अयं च आवश्यक नियुक्ति चूर्णिं सग्रहण्याद्यभिप्रायः ॥भगवत्यादौ च धर्माया अधोऽसंख्ययोजनैः लोकमध्यमुक्तम् । तदनुसारेण तत्र सप्त रज्जव: समाप्यन्ते । परं तदिह स्वल्पत्वान्न विवक्षितमिति संभव्यते ॥योगशास्त्र वृत्तौ तु तत्र धरणीतलात् समभागात् सौधर्मेशानौ यावत् सप्त रज्जुः सनत्कुमार .माहेन्द्रौ यावत् सार्ध रज्जुद्रव्यं ब्रह्मलोके अर्ध चतुर्थारज्जवः अच्युतं यावत् पंच रज्जव: ग्रैवेयकं यावत् षट् रज्जवः लोकान्तं यावत् सप्त रज्जवः इति उक्तम् ॥ जीवाभिगम वृत्तौ अपि बहु समरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उद्धं चंदिमसूरियगहगणणखत्ततारा रूवाणं बहुइओ जोयण कोडिओ यावत् दूरं उर्दू अप्पइत्ता एत्थणं सोहम्मीसाणेत्यादि सूत्र व्याख्याने । “अत्र बह्वीः योजन कोटी: ऊर्ध्वं दूरं उत्प्लुत्य गत्वा । एतच्च सार्ध रज्जू-पलक्षणम् इति उक्तम्॥" ____ यह अभिप्राय आवश्यक सूत्र की नियुक्ति और चूर्णि तथा संग्रहणी आदि ग्रन्थों का है। श्री भगवती सूत्र आदि के अभिप्राय से तो धर्मा नारकी के नीचे असंख्य योजन छोड़ने के बाद लोक का मध्य भाग आता है, इससे उस जगह से सात रज्जु
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy