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पूर्ण होते हैं । परन्तु यह बहुत विशेष नहीं होने से यहां नहीं कहा है । तथा योगशास्त्र की वृत्ति के अभिप्राय से तो समभाग पृथ्वीतल से सौधर्म और ईशान देवलोक तक में डेढ़रज्जु होता है, सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक तक में अढाई रज्जु होता है, ब्रह्म देवलोक तक में साढ़े तीन रज्जु होता है, अच्युत देवलोक तक में पांच रज्जु प्रमाण होता है, ग्रैवेयक तक में छः रज्जु और लोकान्तक में सात रज्जु होता है। जीवाभिगम सूत्र में भी सौधर्म-ईशान आदि सूत्र व्याख्यान में बहूसम भू भाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं छोड़कर बहुत करोड़ों (असंख्यात) योजन जाने पर डेढ़ रज्जु प्रमाण होता है । इस तरह कहा है।
लोकनालि स्तवेऽपि - सोहम्ममि दिवढा अवाइज्झाय रज्जु माहिदे । चत्तारि सहस्सारे पणच्युए सत्त लोगन्ते ॥१४॥इत्युक्त॥ .
लोकनालिस्तव में भी सौधर्म देवलोक तक डेढ़ माहेन्द्र तक अढाई, सहस्रार तक चार, अच्युत देवलोक में पांच और लोकान्त में सात रज्जु होता है।' इस तरह कहा है । (१)
रज्जवाश्चतुर्थो भागो यस्तत् खंडुकमिति स्मृतम्। विष्कम्भायाम पिंडैस्तत् समानं धनहस्तवत् ॥१५॥
रज्जु का चतुर्थ अंश - वह एक खंडुक कहलाता है और वह समचौरस हाथ के समान लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई में एक समान होता है । (१५)
षट् पंचाशत्खंडुकोच्चा सा चतुः खंडुकायता। त्रस नाड़ी भवेदत्र त्रसजीवाश्रयावधिः ॥१६॥
यहां छप्पन खंडुक ऊँची और चार खंडुक चौड़ी, त्रस जीवों के आश्रय वाली त्रस नाड़ी होती है । (१६)
रेखाः पंचोर्ध्वगाः सप्त पंचाशतिर्यगायताः ।
आलिख्य क्वापि पट्टादौ भावनीया तदाकृतिः ॥१७॥
पांच खड़ी और सत्तावन टेढ़ी(चौड़ी) लाईनें किसी पट्टे पर लिखें इसके समान त्रस नाड़ी की आकृति समझनी चाहिए । (१७)
सा चतुर्दश रज्जूच्चा तथैकरज्जु विस्तृता । सर्व लोकस्याथ मानं वक्ष्ये खंडुक संख्यया ॥८॥