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________________ (२) अथवाधोमुखस्थायि महाशराव पृष्ठागम् । एष लोकोऽनुकुरूते शरावसंपुटं लघु ॥५॥ अथवा अधोमुख में रहे एक बड़े शराव के पृष्ठ भाग पर एक छोटा शराव संपुट रखा हो – ऐसा आकार से यह लोक रहता है । (५) धुतः कृतो न केनापि स्वयं सिद्धो निराश्रयः ।। निरालम्ब शाश्वतश्च विहायसि परं स्थितः ॥६॥ यह लोक सदा शाश्वत है, न किसीने धारण कर रखा है या न किसी ने बनाया है । यह स्वयं सिद्ध है और बिना आश्रय से और बिना आधार के आकाश में अधर रहता है । (६) उत्पत्ति विलय धौव्यगुण षड्द्रव्यपूरितः । मौलिस्थ सिद्धमुदितो नृत्यायेवाततक्रमः ॥७॥ यह लोक उत्पत्ति, स्थिति और लय रूप अर्थात् त्रिगुणात्मक है । इसके जो छः द्रव्य कहे हैं इनसे सम्पूर्ण भरा हुआ है तथा अपने मस्तक पर सिद्ध पुरुष विराजमान होने से हर्ष में आकर मानो नृत्य करने के लिए चरण फैलाकर खड़ा हो -इस तरह लगता है । (७) अस्य सर्वस्य लोकस्य कल्प्या भागाश्चतुर्दश । एकैकश्च विभागोऽयमेकै करज्जु सम्मिंतः ॥८॥ इस प्रकार स्वरूप वाले अखिल-सम्पूर्ण लोक के चौदह विभाग कल्पे हुए हैं, और इसका प्रत्येक विभाग एक ‘रज्जु' प्रमाण है । (८) .. सर्वाधस्तन लोकान्तादारभ्योपरिगंतलम् । यावत् सप्तम मेदिन्या एका रज्जुरियं भवेत् ॥६॥ . सर्वथा नीचे के लोकान्त से सातवें नरक के ऊपर तल पर्यन्त एक रज्जु (राजु) होता है । (६) प्रत्येक मेवं सप्तानांभुवामुपरिवर्तिषु । तलेषु रज्जुरेकै कास्युरेवं सप्तरज्जवः ॥१०॥ इस तरह सातों नरक के एक के बाद एक ऊपर प्रत्येक तल तक गिनते, सब मिलाकर सात 'रज्जु' होते हैं । (१०) रत्नप्रभोपरि तलादारभ्यादिमताविधे । पर्याप्तेषु विमानेषुस्यादेषा रज्जुरष्टमी ॥११॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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