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ॐ अर्हम् नमः . श्री आत्मवल्लभ, ललित, पूर्णानंद, प्रकाशचन्द्र सूरिभ्योः नमः
__ श्रीमद् विनय विजयोपाध्याय विरचित
श्री लोक प्रकाश
क्षेत्रलोक द्वितीय विभाग द्वादशः सर्गः
जयत्यभिनवः कोऽपि शंखेश्वरदिनेश्वरः । त्रिविष्टपोद्योतहेतुर्नरक्षेत्र स्थितोऽपि यः ॥१॥
- बारहवां सर्ग . द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव - इस तरह चार लोक में से इस दूसरे क्षेत्रलोक के विषय में कहते हैं - मनुष्य क्षेत्र में रहने पर भी तीन जगत् में प्रकाश करने वाला प्रकाशन कर रखा हुआ होने से मानो.कोई अपूर्व सूर्य न हो, इस तरह दिखते श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान् सर्वत्र विजयी होते हैं । (१)
स्वरूपं क्षेत्रलोकस्य यथा श्रुतमथोच्यतो । .
गुरु श्री कीर्ति विजय प्रसादाप्तधिया मया ॥२॥ .... श्रीमान् गुरुवर्य उपाध्याय कीर्तिविजय जी महाराज की कृपा के कारण जिसे बुद्धि ज्ञान मिला है, वह मैं अब क्षेत्रलोक का शास्त्रोक्त स्वरूप कहता हूँ । (२) ... नरं वैशाखसंस्थानस्थितपादं कटीतटे ।
न्यस्तहस्तद्वयं सर्वदिक्षु लोकोऽनुगच्छति ॥३॥ . दोनों हाथ कटि तट पर रखकर कोई पुरुष वैशाख संस्थान के समान (पैर चौड़े कर के) खड़ा हो इसके समान सर्वथा यह लोक होता है । (३)
चिरमूवंमतया चिरन्तनतयापि च । ".. असौ लोकनरः श्रान्त इव कट्यां न्यधात् करौ ॥४॥ . . . चिरकाल तक ऊर्ध्व दम लेने के कारण तथा वृद्धावस्था के कारणं बहुत
थक जाने के कारण कोई पुरुष कमर पर दो हाथ रखकर खड़ा हो इस प्रकार का • यह लोक होता है । (४)