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________________ (४६४) प्राप्तौ सत्यां मृगांकादेर्योगः स्यादुडुभिः सह । एव मर्क स्यापि योगो भिन्न मण्डल वर्तिनः ॥५७६॥ इसका उत्तर देते हैं - नक्षत्रों का चन्द्रादि के साथ योग किसी निश्चित दिन में नहीं होता, तथा किसी निश्चित दिन, निश्चित समय पर हुआ भी नहीं है इसलिए यथोदित अंशरूप उन-उन मंडलों में उन-उन नक्षत्रों की सीमा क विस्तार बताया है, उसकी प्राप्ति होते, चन्द्रादि का नक्षत्र के साथ मैं योग होता है इसी तरह पृथक मंडल में सूर्य का भी योग समझ लेना । (५७७ से ५७६) एवं भसीमाविष्कम्भादिषु प्राप्तप्रयोजनः । प्रागुक्तो मण्डलच्छेद इदानीमुपपाद्यते ॥५८०॥ इस तरह से नक्षत्रों की सीमा की विस्तार आदि में जिसकी आवश्यकता है वह पूर्वोक्त १०६८०० अंश रूप मंडल छेद की उपपत्ति की जानकारी इस समर कहते हैं। (५८०) त्रिविधानीह ऋक्षाणि समक्षेत्राणि कानिचित् । कियन्ति चार्धक्षेत्राणि सार्धक्षेत्राणि कानिचित् ॥५८१॥ नक्षत्र तीन प्रकार के होते हैं कोई १- समक्षेत्री, कोई २ अर्धक्षेत्री और कोई ३- सार्ध क्षेत्री (दंड क्षेत्र वाला) है । (५८१) , क्षेत्रमुष्णात्विषा यावदहोरात्रेण गम्यते । । तावत्क्षेत्रं यानि भानि चरन्ति राशिना समम् ॥५८२॥ समक्षेत्राणि तानि स्युः अर्धक्षेत्राणि तानि च । अर्ध यथोक्तक्षेत्रस्य यान्ति यानीन्दुना सह ॥५८३॥ युग्मं ॥ यथोक्तं क्षेत्रमध्यर्थं प्रयान्ति यानि चेन्दुना । स्युस्तानि सार्धक्षेत्राणि वक्ष्यन्तेऽग्रेऽभिधानतः ॥५८४॥ १- एक अहो रात्रि में सूर्य जितने क्षेत्र में पहुंच जाय उतने क्षेत्र में जितना नक्षत्र चन्द्र के साथ में फिरे, वह नक्षत्र समक्षेत्री कहलाता है, २- जो उपर्युक्त क्षेत्र के आधे भाग में ही चन्द्र के साथ में फिरे वह अर्ध क्षेत्री कहलाता है और ३ जो उपयुक्त क्षेत्र से ढेडा क्षेत्र में चन्द्र के साथ में फिरे वह सार्ध क्षेत्री कहलाता है। (५८२-५८४)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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