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________________ (४६३) विभिन्न मण्डल स्थानां पृथक् मण्डलवर्तिना । नक्षत्राणां चन्द्रमसा यथा योगस्तथोच्यते ॥५७१॥ भिन्न-भिन्न मंडलों में रहे नक्षत्रों का पृथक मंडल वर्ति चन्द्रमा के साथ में योग होता है उस विषय में अब कहते हैं । (५७१) स्वस्वकाल प्रमाणेनाष्टाविंशत्या किलोभिः । निजगत्या व्याप्यमानं क्षेत्रं यावद्विभाव्यते ॥५७२॥ तावन्मानमेकमधमण्डलं कल्प्यते धिया । द्वितीयोडूकदम्बेन द्वितीयमर्धमण्डलम् ॥५७३॥ अष्टानवतिशताढयं लक्षं सम्पूर्ण मण्डलेषु स्युः । सर्वेष्वंशा च विज्ञेयो मण्डलच्छे दः ॥५७४॥ अपने-अपने, काल के अनुसार से नक्षत्र अट्टाईस अपनी-अपनी गति से जितना क्षेत्र व्याप्त करता है, उतने क्षेत्र अनुसार एक आधा मण्डल बुद्धि द्वारा विचार करना, और इसी ही अनुसार से दूसरे नक्षत्रगण से व्याप्तमान क्षेत्र प्रमाण, दूसरा आधा मंडल विचार करना । इस तरह करके आठ-सम्पूर्ण मण्डलों में सर्व मिलाकर एक लाख नौ हजार आठ सौ ८१०६८००) अंश छोटा है इसे मंडल छेद समझना । (५७२ से ५७४) .. . ननु च- मण्डलेषु येषु यानि चरन्त्युडूनितेष्वियम् । ... चन्द्रादियोगयोग्यानां भांशानांकल्पनोचिता ॥५७५॥ सर्वेष्वपि मण्डलेषु सर्वोडु भागकल्पना । इयतिकथमौचित्यमिति चेत् श्रूयतामिह ॥५७६॥ यहां प्रश्न होता है कि - जिस मंडल में जो नक्षत्र चलता है, उनमें चन्द्रादि योग के लायक नक्षत्र के अंश की कल्पना करना तो उचित है, परन्तु सर्व मंडलों में सर्व नक्षत्रों के अंशो की कल्पना करना किस तरह उचित कहलाता है ? (५७५-५७६) भानां चन्द्रादिभिर्योगो नैवास्ति नियते दिने । न वा नियतवेलायां दिनेऽपि नियते न सः ॥५७७॥ तेन तत्तन्मण्डलेषु यथोदितलवात्मसु । तत्तन्नक्षत्रसम्बन्धिसीमाविष्कम्भआहिते ॥५७८॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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