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श्री भगवती सूत्र की वृत्ति में भी इस प्रकार की शंका की है, इसका उत्तर भी आचार्य भगवन्त ने दिया, उसका भावार्थ पूर्व की दोनों गाथा के अनुसार ही हैं। (४४३-४४४)
यदा तु लेश्यामावृण्वन् पर्वराहुः व्रजत्यधः । पुष्पदन्तमण्डलयोः यथोक्तकालमानतः ॥४४५॥ तदा भवत्युपरागो यथार्ह चन्द्रसूर्ययोः । जनैः ग्रहणमित्यस्य प्रसिद्धि परिभाव्यते ॥४४६॥ युग्मं ॥
अब कुछ ग्रहण के विषय में कहते हैं - जब पर्व राहु सूर्य अथवा चन्द्रमा की लेश्या (कान्ति) को आच्छादित करता है, तब उस काल में सूर्य या चन्द्र के नीचे जाता है, और उस समय में यथा योग्य सूर्य, चन्द्र ढक जाते हैं, वह लोक में ग्रहण के नाम से प्रसिद्ध है । (४४५-४४६) . .
जघन्यतस्तत्र षण्णां मासामन्ते शशिग्रहः । . उत्कर्ष तो द्विचत्वारिंशतो मासामतिक्रमे ॥४४७॥ .. मासैर्जघन्यतः षड् भिर्जायते तरणिग्रहः । संवत्सरै रष्ट चत्वारिंशतोत्कर्षतः पुनः ॥४४८॥ ..
चन्द्रग्रहण जघन्य से छः महीने में और उत्कृष्ट से बयालीस महीने में होत है, जबकि सूर्य ग्रहण जघन्य से छह मास में और उत्कृष्ट से अड़तालीस वर्ष में होता है । (४४७-४४८)
यदा स्वर्भाणु रागच्छन्, गच्छन् वर पुष्पदन्तयोः। . लेश्यामावृणुयात्तर्हि वदन्ति मनुजा भुवि ॥४४६॥ चन्द्रोरविर्वा तमसा गृहीत इति यद्यथ । लेश्यामावृत्य पाइँन गच्छत्यर्कशशांकयोः ॥४५०॥ तदा वदन्ति मनुजा रविणा शशिनाथवा । राहोः कुक्षिभिन्न इति यदा पुनर्वि,तुदः ॥४५१॥ अर्के न्दुलेश्यामावृत्यापसर्पति तदा भुवि । वदन्ति मनुजा वान्तौ राहुणा शशिभास्करौ ॥४५२॥
चतुर्भिः कलापकम् ॥