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तच्चैवम् - स्वीयपंचदशांशेन कृष्णप्रतिपदि ध्रुवम् । मुक्त्वांशी द्वावनावार्यों शेष षष्टे: सितत्विषः ॥४२१॥ . चतुर्भागात्मकं पंचदश भागं विधुतुदः । आवृणोति द्वितीयायां निजभागद्वयेन च ॥४२२॥ अष्टभागत्मकौ पंच दशांशौ द्वौ रूणद्धि सः । षष्टिं भागानित्यमायां स्वैः पंचदशभिः लवैः ॥४२३॥ त्रिभि विशेषकं ॥
कृष्ण पक्ष (वद) की एकम के दिन में चन्द्र में कल्पे हुए बासठ (६२) भाग में से जो आच्छादित न हो सके, उन दो भाग को छोड़कर शेष ६० विभागों के १/१५ को अर्थात् चार विभाग को राहु अपने १/१५ द्वारा आच्छादितं करता है, और वदी दूज के दिन में राहु अपने २/१५ से चन्द्रमा के आठ विभाग को आवरण करता है । इसी तरह अमावस्या के दिन में राहु अपने सर्व भाग से अर्थात् उसके अखिल बिंब, चन्द्रमा के साठ भाग को ढक देता है । (४२१ से ४२३) ...
ततः शुक्ल प्रतिपदि चतुर्भागात्मकं लवम् । एकं पंचदश व्यक्तीकरोत्यपसरन् शनैः ॥४२४॥ द्वितीयायां द्वौ विभागौ पूणिमायामिति क्रमात् । द्वाषष्टयंशात्मकः सर्वः स्फुटीभवति चन्द्रमाः ॥४२५॥
उसके बाद शुक्ल पक्ष की एकम के दिन वह धीरे से जरा हटकर चन्द के चार भाग को प्रकट करता है । और इसी तरह क्रम अनुसार पूर्णिमा के दिन, बासठ भाग रूप सम्पूर्ण चन्द्रमा प्रगट होता है । (४२४-४२५) .
इन्दोश्चतुर्लवात्मांशो यावत्कालेन राहुणा । पिधीयते मुच्यते च तावत्कालमिता तिथि ॥४२६॥ इन्द्रौः पिधीयमानाः स्यु कृष्णाः प्रतिपदादिकाः। तिथयो मुच्यमानाः स्यु शुक्लाः प्रतिपदारिकाः ॥४२७॥
चन्द्रमा के यह चार विभाग के जितने अंश को राहु जितने काल तक आवरण- अथवा खुला- (आवरण रहित) रखता है उतना काल, एक तिथि कहलाती है। राहु नित्य-नित्य आवरण करता जाता है, इस तरह प्रतिपदादि तिथियाँ कृष्णपक्ष की कहलाती है, और राहु नित्य नित्य आवरण रहित करता जाता है, वे-वे प्रतिपदादि तिथियाँ शुक्ल पक्ष की कहलाती हैं । (४२६-४२७)