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(४६६) के नीचे चन्द्र से चार अंगुल रहकर चलता है । उसको ढाकता आस्ते आस्ते चलता है, इससे ही चन्द्रमा में वृद्धि हानि का आभास होता है । (४१२-४१४)
तथोक्तम् - . चंदस्सनेव हाणी नवि वुद्धि वा अविडिओ चंदो। . सुक्किलभावस्य पुणो दी सइ वुवी य हाणि य ॥४१५॥ किन्हं राहु विमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियम् । चउरंगुलमप्पत्तं हिट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥४१६॥
अन्यत्र भी यही भावार्थ वाली गाथाएं कही हैं, बस कान्ति की साक्षी देनी है। पूर्व और इन दो गाथाओं का भावार्थ एक ही है । (४१५-४१६)
तेणं बढइ चंदो परिहाणाी वावि होई चंदस्स । तत्र प्रकल्प्य द्वाषष्टिभागान् शशांक मण्डले ह्रियते पंचदशभिः लभ्यतेऽशचतुष्टयम् ॥४१७॥ एता वदावियते तत् प्रत्यहं भरणीभुवा ।
अहोमिः पंचदशभिरेव मावियतेऽखिलम् ॥४१८॥ युग्मं ॥ - द्वौ भागौ तिष्टतः शेषौ सदैवानावृत्तौ च तौ । . एषा कला षोडशीति प्रसिद्धिमगमत् भुवि ॥४१६॥
चन्द्रमा के मंडल (विमान) के बासठ विभाग की कल्पना करना, उस बासठ को पंद्रह से भाग देना उस भाग में ४ आयेगा । अतः चन्द्रमा हमेशा-नित्य राहु के विमान से ढका जाता है, इस तरह पंद्रह दिन में चन्द्रमा को ६०/६२ आवरण होता है, केवल २/६२ शेष रहता है, उसका कभी भी आवरण नहीं होता, सदा खुला रहता है, और वह भाग पृथ्वी पर चन्द्रमा की सोलहवां कला रूप में प्रसिद्ध है। (४१७ से ४१६)
कल्प्यन्तेऽशा: पंचदश विमाने राहवेऽथ सः । जयत्यकैकांशवृद्धया नीतिज्ञोऽरिमिवोडुपम् ॥४२०॥
राहु के विमान के पंद्रह भाग की कल्पना करे, तो वह अपने एक-एक भाग की वृद्धि से, उस चन्द्रमा को नीतिज्ञ पुरुष शत्रु को जीतता है, वैसे जीतता है, यानी ढक (आवरण कर) देता है । (४२०)