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________________ (४५६). इस ही तरह से सब से अन्तिम मंडल में दोनों चन्द्रों का एक लाख छः सौ उनसठ पूर्ण योजन और पैंतालीस इकसठांश १००३५६४५/६१ योजन है । (३४४) अष्टांशोरूव्यासमिन्दु मण्डलं भानुमण्डलात् । अष्टाष्टार्वाक्क्षेत्रभागाः रूद्धास्ततोऽधिकाः ॥३४५॥ . ततः षोडशभिः भागैः न्यूनं परममन्तरम् । सर्वान्त्यमण्डले ग्लावोरर्कयोः परमामान्तरात् ॥३४६॥ सूर्य के मंडल से चन्द्रमाओं के मंडल के घेरा आठ अंश अधिक है । इससे दोनों चन्द्रमाओं में क्षेत्र को आठ-आठ अंश अधिक रोका है, और इससे सर्व से अन्तिम मंडल में सूर्य के उत्कृष्ट अन्तर से दोनों चन्द्रमाओं का उत्कृष्ट अन्तर सोलह अंश कम है । (३४५-३४६) एवं कृता चन्द्रमसोर्मिथोऽबाधा प्ररूपणा । साम्प्रतं मंडलचारप्ररूपणा प्रपंच्यते ॥३४७॥ इस तरह दोनों चन्द्रमाओं की परस्पर अबाधा का कथन किया । अब उनकी मंडल गति के विषय में कहते हैं । (३४७) परिक्षेपा मण्डलानां मुहूर्तगतिरत्र च । मण्डलार्ध मण्डलयोः काल संख्या प्ररूपणा ॥३४८॥ साधारण साधारण मण्डलानां प्ररूपणा । एवं चत्वार्यनुयोगद्वाराण्यत्र जिना जगुः ॥३४६॥ यहां चार अनुयोग द्वार कहे हैं :- १-मंडल की परिधि - घेरावार, २- मुहूर्त गति, ३- मंडल तथा अर्ध मंडल की काल संख्या और ४- साधारण तथा असाधारण मंडल । यहां इन चार वस्तु का विचार जिनेश्वर देव ने कहा है। (३४८-३४६) विष्कम्भयामतस्तत्र सर्वाभ्यन्तर मण्डलम् । सहस्रा नव नवतिश्चत्वारिंशा च षट् शती ॥३५०॥ तिस्रो लक्षाः पंचदश सहस्रा योजनान्यथ । नवाशीतिः परिक्षेपोऽधिकोऽम्यन्तर मण्डले ॥३१॥ भावना तूभयोरपि सूर्याभ्यन्तर मण्डलवत् ॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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