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________________ (४६०) सर्व से अन्दर का मंडल निन्यानवें हजार छ: सौ चालीस (६६६४०) योजन लम्बा चौड़ा है । अर्थात् इतना इन दोनों के मध्य चौड़ाई है, और इससे उनकी परिधि तीन लाख पंद्रह हजार नवासी योजन से कुछ अधिक है । (३५०-३५१) इन दोनों की भावना भी सूर्य के अभ्यन्तर मंडल के समान जानना । द्वितीय मण्डल व्यासं विभाव्योक्तानु सारतः । भावनीयः परिक्षेपः स चापमुपपद्यते ॥३५२॥ तिस्त्रो लक्षा पंच दस सहस्त्राणि शत त्रयम् । योजनान्येकोनविंश साधिकं किंचनाथ वा ॥३५३॥ दूसरे मंडल का व्यास पूर्वोक्त अनुसार भाव-विचार कर इसका घेराव निकालना चाहिए, वह तीन लाख पंद्रह हजार तीन सौ उन्नीस योजन से कुछ अधिक आता है । (३५२-३५३) वह इस प्रकार :- .. ..... पूर्व मण्डल विष्कम्भात् परमण्डल विस्तृतौ । द्वावप्तति योजनानि वृद्धिंः प्राक्. प्रत्यपादि च ॥३५४॥ तस्याः पृथक् परिक्षेपः कर्तव्यः कोविदेन्दुना । द्वे शते त्रिंशदधिके योजनानां भवेदसौ ॥३५५॥ पूर्व पूर्व परिक्षेपे यद्ययं क्षिप्यते तदा । परापरपरिक्षेपा भावनीया यथोत्तरम् ॥३५६॥ पूर्व मंडल की चौड़ाई से पश्चिम मंडल की चौड़ाई में पूर्व जो ७२ योजन की वृद्धि कही है, वह बहत्तर योजन की अलग परिधि निकालना चाहिए, वह २३० योजन होता है, उसे पूर्व-पूर्व के घेराव में मिलाने से उत्तरोत्तर मंडल का घेराव आयेगा । (३५४-३५६) इयमिन्दुमण्डलानां परिक्षेप प्ररूपणा । मुहूर्त गतिमाख्यामि संप्रति प्रतिमण्डलम् ॥३५७॥ इस तरह से चन्द्र के मण्डलों का कथन किया, अब प्रत्येक मंडल में उनकी मुहूर्त गति विषय में कहते हैं । (३५७) उपसंक्रान्तरिन्द्वोः सर्वाभ्यन्तर मण्डले । पंच पंच सहस्राणि योजनानां त्रिसप्ततिः ॥३५८॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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