SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४५८) सर्व से बाहर का मंडल है वह तो मेरू पर्वत से पैंतालीस हजार तीन सौ उन्तीस ४५३२६५३/६१ योजन दूर है (३३६) अब दोनों चंद्रमा का प्रत्येक मण्डल में परस्पर अंतर कितना है वह कहते हैं । (३३७) इन्द्वोर्मियोऽर्क वत्सर्वान्तरंगमण्डलेऽन्तरम् ।। सहस्रा नवनवतिश्चत्वारिंशा च षट्शती ॥३३८॥ इतश्च- द्वासप्तति योजनानामेक पंचाशदंशकाः । ___ एकषष्टिभवाः सप्तभक्तस्यास्य लवोऽपि च ॥३३६॥ एतावदन्तरं ग्लावोः वर्धते प्रति मण्डलम् । बहिनिष्क मतोरन्तर्विशतोः परिहीयते ॥३४०॥ सर्व अभ्यन्तर मंडल में दोनों चन्द्रमाओं का परस्पर अन्तर सूर्य के समान निन्यानवे हजार छ: सौ चालीस योजन का है । उसके बाद प्रत्येक मण्डल में बहत्तर पूर्ण योजन और (५१/६१) १/७ योजन सद्दश अन्तर हैं । वहां से बाहर निकलते बढ़ता है, और अन्दर दाखिल (प्रवेश) होते घटता है । (३३८-३४०) एतच्चयत्पुरा प्रोक्तं प्रतिमण्डलमेकतः । अन्तरं तद् द्विगुणितं भवेत्पार्श्व द्वयोद्भवम् ॥३४१॥ यह अन्तर जो पूर्व में प्रत्येक मण्डल में एक ओर का कहा है, उसे दो गुण करने से दोनों तरफ का अन्तर निकलता है। (३४१) एव च - सहत्राः नवनवति योजनानां शतानि च । द्वादशोषितानि सप्त विभागाश्चैकषष्टिजाः ॥३४२॥ एक पंचाशदेकोशं एकषष्टिलवस्य च । सप्तभागीकृतस्यैतत् द्वितीय मण्डलेऽन्तरम् ॥३४३॥ दूसरे मण्डल में दोनों चन्द्रमा का परस्पर अन्तर पहले मंडल से बहत्तर योजन आदि बढ़ता है। अतः निन्यानवे हजार छ: सौ चालीस योजन+७२ योजन आदि है । अर्थात् ६६७१२ पूर्ण योजन ऊपर (५१/६१) १/७ योजन है। (३४२-३४३) सर्वान्तिमेऽन्तरं लक्षं सषष्टीनि शतानि षट् । योजनानामेकषष्टि भागैः षोडशभिर्विना ॥३४४॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy