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दो-शब्द
अपने साधु जीवन के प्रारम्भिक काल से सुनता आ रहा था कि, उपाध्याय ' श्री विनय विजय' जी गणि वर्य रचित 'लोक प्रकाश' महान ग्रन्थ है । अनेकों बार वयोवृद्ध श्रमण भगवंतों के मुखारविंद से इस ग्रन्थ में जैन र्दशन के सभी तत्वों का समावेश है, द्रव्य लोक-क्षेत्र-लोक काल लोक एवं भाव लोक के सभी पदार्थों का ज्ञान इसमें है । उस समय ज्ञान की इतनी क्षमता भी नहीं थी की तत्काल इस ग्रन्थ की अदभुत सूक्ष्मता को समझ पाता। जैसे-जैसे संयम साधना चलती रही, शास्त्रों का पठन-पाठन-मनन-अनुशीलन चलता रहा। बुद्धि में भी कुछ जानने-समझने की पात्रता आती गई। अनेकों दुर्लभ ग्रन्थों को पढ़कर-समझकर हिन्दी भाषा में रूपान्तर करने का क्रम भी अवरित गति से चलता रहा । इस ग्रन्थ के प्रति मन में अधिक-अधिक उत्कंठा जागृत होती गई। सौभाग्य से 'लोक प्रकाश' ग्रन्थ पढ़ने में आया। पूर्ण मनोयोग से दत्तचित्त होकर कई बार आद्यान्त पारायण किया । ग्रन्थराज में वर्णित गूढ तत्वों का भान होने पर पता चलता है कि वस्तुतः यह ग्रन्थ तो जैन साहित्य की अमूल्य निधि है । विभिन्न गुजराती भाषा में रूपान्तरित संस्करण पढ़ने में आये । मन में विचार जाग्रत हुआ कि ऐसे अनुपम और दुर्लभ ग्रन्थ का हिन्दी भाषा प्रचलन न होना बड़ा ही कष्टकारी है । हिन्दी तो राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है और हिन्दी भाषी प्रदेश भी कितने ही हैं। बस इसी भावना से प्रेरित होकर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का आलम्बन प्राकर सम्पूर्ण 'लोक प्रकाश' ग्रन्थ सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद करने का द्रढ़ निश्चय कर लिया । श्रुत ज्ञान देव की परम कृपा एवं पूज्य गुरू भगवतों के शुभार्शीवाद से दो वर्ष की अल्पावधि में ही सम्पूर्ण ग्रन्थ को पाँच भागों में हिन्दी भाषा में रूपान्तरित कर सका । यह वर्ष मेरी दीक्षा पर्याय का ५० वाँ साल चल रहा है, उधर ग्रन्थराज 'लोक प्रकाश' का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हो रहा है । 'अहो कल्याणं परम्परा' मेरे लिये तो बहुत ही आनन्द दायक है । यह मणिकांचन योग बहुत ही श्रेयस्कर है।
इस ग्रन्थ का मनोयोग पूर्वक अध्ययन व चिन्तन करने से जैन दर्शन के गूढ व दुर्लभ तत्वों का ज्ञान मिलता है । जीव द्रव्य लोक-क्षेत्र लोक-काल लोक और भाव लोक के पदार्थों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म ज्ञान प्राप्त होता है । इन तत्वों को जानकर मनुष्य जीव हिंसा के पापों से भी बच सकता है और कर्म रहित भी हो सकता है। पवित्र वीतराग परमात्ममार्ग की आराधना करके मुक्ति पथ का पथिक बनता है। ग्रन्थराज सम्पूर्ण पाँचो भागों में छप चुका है । अपनी अनुकूलताअनुसार पाठक गण प्राप्त कर पठन-पाठन करेगें तो कल्याण होगा।