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________________ (४५५) भागाश्चत्वार एकैकमेतावदन्तरं भवेत् । शीतयुतेमण्डलेषु तत्रोपपत्तिरूच्यते ॥३१३॥ चन्द्र मण्डल विष्कम्भे प्राग्वत्पंचदशाहते । शोधिते मण्डल क्षेत्रात् योजनानां चतुः शती ॥३१४॥. शेषा सप्तनवत्याढया ह्ये कोंऽशः चैक षष्टिजः । विभज्यन्ते च ते चतुर्दशभिर्मंडलान्तरैः ॥३१५॥ पंचत्रिंशद्योजनानि लब्धान्युद्धरिते (सप्त) हते । एक षष्टयेकषष्टयंशेमैकेन च समन्विते ॥३१६॥ अष्टाविंशा. चतुः शत्ये तस्याश्च भजने सति । चतुर्दशभिराप्यन्ते त्रिंशदंशा पुरोदिताः ॥३१७॥ शेषा अष्टौ स्थिता भाज्या भाजकाश्च चतुर्दश । भागा प्राप्त्या पवत्यैते ततो द्वाभ्यामुभावति ॥३१८॥ इसकी उपपत्ति अथवा युक्ति इस तरह है - एक मंडल के विस्तार को पूर्व के समान १५ से गुणा करना, अतः १३ ४७/६१ योजन आयेगा । इन पंद्रह मंडलों का विस्तार समस्त मंडल क्षेत्रों का विस्तार ५१० ४८/६१ योजन है । इसमें से १३ ४७/६१ निकला तो ४६७ १६१ योजन रह जायेगा ये चौदह अंतरों का कुल विस्तार है, इसलिए ४६७ १/६१ को चौदह से भाग देने पर ३५ पूर्ण योजन और ३० ४/७ इक साठांश योजन आयेगा । वह इस प्रकार ४६७ योजन को चौदह से भाग देने में ३५ योजन आते है। भाजक और भाग का गुणा कर ४६० हुआ और ४६७ में से निकाल देने पर शेष सात योजन रहा, उस रहे सात योजन को ६१ द्वारा गुणी एक अंश मिलाने पर ४२८ अंश आया उसे चौदह से भाग देके तीस एक इकसाठ भाग आया और आठ अंश बढ़ गया.। उस आठ अंश को चौदह से भाग देते ८/१४ अथवा ४/७ आया । अतः प्रत्येक चन्द्र के मंडल का आन्तर ३५३०/६१,४/७ समझना (३१३ से ३१८) भाग भागास्ततो लब्धाश्चत्वारः साप्तिका इति । एतच्चतुर्दश गुणं कर्तव्यं प्रथमं त्विह ॥३१॥ पंचत्रिशद्योजनानि चतुर्दश गुणानि वै । शतान्यभंवश्चत्वारि नवत्याढयानि येऽपि च ॥३२०॥ त्रिंशदेकषष्टि भागाश्चतुर्दश गुणी कृताः । जाताः शतानि चत्वारि विंशत्याढयानि ते त्वथ ॥३२१॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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