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एकषष्टया विभज्यन्ते योजन प्राप्तये ततः । लब्धा षट्योजनी शेषाश्चतुः पंचाशदंशकाः ॥३२२॥ सप्त भक्तस्यैकषष्टिभागस्य या चतुर्लवी । चतुर्दशगुणा सापि षट्पंचाशत् भवन्त्यमी ॥३२३॥ अष्टावेकषष्टिभागाः जायन्ते सप्तभाजिताः । द्वाषष्टिरेते स्यु प्राच्य चतुः पंचाशता युताः ॥३२४॥ एक षष्टयैषां च भागे प्राप्तं सैकांशयोजनम् । . योज्यतेऽशश्चांशराशौ योजनं योजनेषु च ॥३२५॥
इन आन्तरा को चौदह से गुणा करके ४६० आता है उसे तीस इकसाठ से भाग दे कर चौदह से गुणा करके चार सौ बीस आता है । उसे इकसठं से भाग देते छः योजन आया और चौवन अंश बढ़ता है । फिर चार-सात से भाग देकर चौदह से गुणा करके ५६ आता है उसे सात से भाग देने पर आठ आता है, उसे ५४ अंश में मिलाने पर ६२ होते हैं । उसे इकसठ भाग देके एक योजन आया और एक-इकसठ से भाग देना, उसे ४६६ में मिलाने पर ४६७ १/६१ चौदह आंतर का प्रमाण आया । इस तरह मंडल क्षेत्र का विस्तार निकलता है । (३१६-३२५) एवं च - योजनानां पंचशती दशोत्तरकैषष्टिजाः ।
अष्ट चत्वारिंशदंशा मण्डलक्षेत्रसंमितिः ॥३२६॥ वे १३ ४७/६१ योजन को चौदह अंतर का विस्तार ४६७ १/६१ योजन के साथ मिलाने पर ५१० ४८/६१ योजन प्रमाण आता है । (३२६)
कृतैवं मण्डल क्षेत्र परिमाण प्ररूपण । । संख्या प्ररूपणां त्वेषा माहुः पच्चदशात्मिकाम् ॥३२७॥ तत्र पंच मण्डलानि जम्बू द्वीपे जिना जगुः ।
शेषाणि तु दशाम्भोधौ मण्डलान्यमृतद्युतेः ॥३२८॥
इस तरह से चन्द्र मंडल के क्षेत्र के प्रमाण का कथन किया है। इन चन्द्र मंडलों की संख्या पंद्रह है । उसमें पांच जम्बू द्वीप में है और शेष दस लवण समुद्र के ऊपर है, ऐसा जिनेश्वर भगवान ने कहा है । (३२७-३२८)
अबाधा तु त्रिधा प्रागवत् तत्राद्या मेवपेद्यया । ओधतो मण्डलक्षेत्राबाधाऽन्या प्रति मण्डलम् ॥३२६॥