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________________ (४५४) सूर्य वक्तव्यता चैवं यथाम्नायं प्रपंचिता । ___ एवं प्रपंचयामोऽथ चन्द्रचारप्ररुपणाम् ॥३०५॥ इस प्रकार सूर्य सम्बन्धी आम्नाय (परम्परा) अनुसार जो कहना था वह कह दिया है । अब इसी ही तरह चन्द्र गति के विषय कहते हैं । (३०५) आदौ क्षेत्रं मण्डलानां तद बाधा तदन्तरम् । तच्चारश्च वृद्धिहानिप्रतिभासप्ररूपणा ॥३०६॥ अत्रानुयोग द्वाराणि पंचाहुस्तत्व वेदिनः । तत्रादौ मण्डल क्षेत्र परिमाणं प्रत्तन्यते ॥३०७॥ सूर्य के सम्बन्ध में जैसे पांच अनुयोग द्वार कहे हैं, वैसे ही चन्द्रमा के विषय भी तत्ववेत्ताओं ने पांच अनुयोग द्वार कहे हैं । और वे इस प्रकार हैं - १- चन्द्रमा के मंडलों का क्षेत्र, २- उनकी अबाधा, ३- उनका अन्तर, ४- उनकी गति और ५-उनकी वृद्धि हानि का प्रति भास । इन पांच में से प्रथम मण्डल के क्षेत्र विषय कहते हैं । (३०६-३०७) मण्डलानि पंचदश चन्द्रस्य सर्वसंख्या । षट् पंचाशद्यौजनैक षष्टिभागपृथ्न्यतः ॥३०८॥ गुणिताः पंचदशभिः षट् पंचाशत् भवन्ति ते । अष्टौ शतानि चत्वारिंशान्येकषष्टिजाः लवा ॥३०६॥ एक षष्टया विभज्यन्ते योजनानयनाय ते । त्रयोदस योजनानि लब्धान्येतत्तुशिष्यते ॥३१०॥ सर्व मिलाकर चन्द्रमा के पंद्रह मंडल होते हैं । प्रत्येक मंडल ५६/६१ योजन चौड़ी है, इससे छप्पन को पंद्रह से गुणा करते (५६४१५ =८४०) आठ सौ चालीस आते है उसे इकसठ से भाग देने पर ८४०६१ पंद्रह मंडल का विस्तार १३ ४७/६१ योजन होता है । (३०८ से ३१०) सप्तचत्वारिंशदंशा योजनस्यैकषष्टिजाः । मण्डलानां पुनरेषामन्तराणि चतुर्दश ॥३११॥ पंचत्रिंश द्योजनानि त्रिशत्त थैक षष्टिजाः । लवा एकस्यैक षष्टयंशस्य क्षुण्णस्य सप्तधा ॥३१२॥ उन पंद्रह मंडलों के बीच में चौदह अन्तरा होते हैं, वे प्रत्येक अन्तरा ३५ योजन + १/६१४४/७ योजन होता है । (३११-३१२)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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