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सर्वाभ्यन्तर मंडल के दक्षिणार्ध में से निकल कर मेरू पर्वत से वायव्व दिशा में दूसरे मंडल के उत्तरार्ध में प्रवेश करके, फिरता हुआ दीपक के समान मेरू के उत्तर दिशा के भाग को प्रकाशित करता है, और उत्तर दिशा का सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल के उत्तरार्ध में से निकलकर मेरू पर्वत से दक्षिण पूर्व दूसरे मंडल के दक्षिणार्ध में प्रवेश करके मेरू के दक्षिण दिशा के भाग को प्रकाशित करता है। (२८८-२६२)
क्षेत्रमाभ्यां च यत्स्पृष्टं तस्याह्नः प्रथम क्षणे । द्वितीयं मण्डलं बुद्धया कल्प्यते तदपेक्षया ॥२६३॥
अब दोनों सूर्यों ने जिस दिन प्रथम क्षण में जितना क्षेत्र स्पर्श किया हो उसकी अपेक्षा से दूसरे मंडल की कल्पना करना । (२८३) . . एवं च - ऐकैकस्मिन्नहोरात्रे एकैकमर्धमण्डलम् । .
संक्रम्य संचरन्तौ तावन्यान्यव्यतिहारतः ॥२६४॥ . प्रत्येकं द्वौ मुहूर्तेकषष्टि भागौ दिने दिने । क्षपयन्तौ सर्व बाह्य मण्डलावधि गच्छतः ॥२६५॥ युग्मं ॥
और इसी तरह प्रत्येक अहो रात में एक-एक अर्ध मंडल में संक्रमण कर परस्पर आमने-सामने संचार करते उन दोनों सूर्यों के प्रत्येक दिन में मुहूर्त का इकसठ के दो भाग कम करते प्रत्येक मंडल को पार करते सर्व से बाहर के मंडल में आता है । (२६४-२६५)
तस्मात्पुनः सर्वबाह्यार्वाचीन मण्डलस्थितात । । दक्षिणार्धात् विनिर्गत्य सर्वान्त्यमण्डलाश्रितम् ॥२६६॥ उत्तरार्धं स विशति यः प्रकाशितवान् पुरा । रविर्मे रोर्याम्यभागं सर्वाभ्यन्तर मण्डले ॥२६७॥ युग्मं ॥ यस्तु तत्रोत्तर भागमदिदीपद्रविः पुरा । य सर्व बाह्यार्वाचीन मण्डलस्योत्तराधर्तः ॥२६॥ निर्गत्य दीपयेद्यामयम) सर्वान्त्यमण्डले । '
आद्यं संवत्सरस्यार्ध मेवामाभ्यां समाप्यते ॥२६६॥
इन दोनों सूर्यों में से जिस सूर्य ने पहले सर्वाभ्यन्तर मंडल में मेरू पर्वत के दक्षिण विभाग को प्रकाशित किया था वह सूर्य सर्व से बाहर के मंडल से पूर्व (पहले) के मंडल से दक्षिणार्ध में से बाहर निकल कर अन्तिम मंडल के उत्तरार्ध