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कहा है कि - दो सूर्य के भ्रमण करने से यहां एक-एक मंडल होता है, किन्तु वह मंडल कहने में आता है । जैसे कि निषध और नीलवंत पर्वत पर कर्क संक्रान्ति में उदय होते सूर्य, प्रथम समय से गति द्वारा भ्रमण करता है, और इससे इनका यह मंडल कहलाता है । किन्तु निश्चय रूप में मंडल नहीं होता। इसी तरह से चन्दो का भी निश्चय मंडल का अभाव है । (२८२-२८४)
मेरोदक्षिण पूर्वस्यामेकोऽभ्यन्तर मण्डले । संक्रम्य याम्यदिग्भागं यदा मेरोः प्रकाशयेत् ॥२८५॥ तदापरोत्तरदिशि प्राप्तोऽभ्यन्तरमण्डलम् । अन्यो मेरोरूदग्भागं प्रकाशयति भानुमान् ॥२८६॥ दक्षिणोत्तरयोर्मेरोः सर्वोत्कृष्टं दिनं तदा । रात्रिः सर्व जघन्यैषोऽहोरात्रौ वत्सरेऽन्तिमः ॥२८७॥
मेरू पर्वत से दक्षिण पूर्व जब एक सूर्य अन्दर के मंडल में प्रवेश होकर मेरू के दक्षिण दिशा के भाग को प्रकाशित करता है, तब दूसरा सूर्य मेरू पर्वत से पश्चिम उत्तर में अंदर के मंडल में प्रवेश करके मेरू के उत्तर दिशा के भाग को प्रकाशित करता है, और उस समय में मेरू से दक्षिण में और उत्तर में सब से बड़ा दिन और सब से छोटी रात होती है और वह वर्ष में अन्तिम अहो रात कहलाती है । (२८५-२८७) .: अहो रात्रे नवाब्दस्य चरतः प्रथमे यदि । . '. द्वितीय स्मिन् मण्डलेऽर्को निष्क्रम्यान्तरमण्डलात्॥२८८॥
दाक्षिणात्यः तदा सूर्यः सर्वान्तर्मण्डलाश्रितात् । विनिर्गत्य दक्षिणार्धात् वायव्यां सुरभूभृतः ॥२८६॥ द्वितीययस्य मण्डलस्योत्तरार्द्ध आश्रितश्चरन् । मेरोरूत्तरदिग्भागं प्रकाशयति दीपवत् ॥२६०॥ औत्तराहः पतंगस्तु सर्वान्तर्मण्डलाश्रितात् । औत्तरार्धान् विनिर्गत्य मेरोः दक्षिणपूर्वतः ॥२६१॥ द्वितीयस्य मण्डलस्य दक्षिणार्धमुपाश्रितः । मेरोः दक्षिण दिग्भागं प्रकाशयति लीलया ॥२६२॥
उसके बाद जब वे दोनों सूर्य नये वर्ष के पहले अहो रात में अन्दर के मंडल में से निकल कर दूसरे मंडल में परिक्रमण करते हैं तब दक्षिण दिशा का सूर्य