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मेरोदक्षिणपूर्वस्यां यदा प्रथममेव हि । एकः सूर्यः प्रविशति सर्वाभ्यन्तरमण्डलम् ॥२७६॥ पश्चिमोत्तर दिग्भागे तदैवान्योऽपि भास्करः । समकालं स्पर्द्धयेव सर्वान्तर्मण्डलं विशेत् ॥२७७॥
जब एक सूर्य का मेरूपर्वत से दक्षिण-पूर्व में पहले सर्वाभ्यन्तर मंडल में प्रवेश होता है, उस समय दूसरा सूर्य भी मानो स्पर्धा से उसी समय में पश्चिमउत्तर दिशा में उसी ही प्रथम सर्वाभ्यन्तर मंडल में प्रवेश करता है । (२७६-२७७)
इत्थं ताभ्यां प्रविशद्भ्यां व्याप्तं यत्प्रथमक्षणे ।
क्षेत्रं व्यपेक्षया तस्य कल्प्यमान्तरमण्डलम् ॥२७८॥ .
इसी तरह प्रवेश करते समय वे दोनों सूर्य प्रथम क्षण-समय में कितना क्षेत्र व्याप्त करते हैं, उसकी अपेक्षा से सर्वाभ्यन्तर मंडल कल्पना करना । (२७८) .
प्रथमात्तु क्षणादूर्ध्वं विवस्वतौ शनैः शनैः । क्रमादपसरन्तौ च सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् ॥२७६॥ अनन्तबहि विमण्डलाभिमुखं किल । सर्पन्तौ चरतश्चारं ततश्च क्षणे ॥२८०॥ स्पृष्टं क्षेत्रं यदेताभ्यां तदपेक्ष्य प्रकल्पितम् । ज्ञेयं मण्डल तुल्यत्वात् मण्डलं न तु तात्विकम् ॥२८१॥ विशेषकं ॥
पहले क्षण से आगे धीरे-धीरे वे दोनों सूर्य अनुक्रम से सर्वाभ्यन्तर मंडल में से बाद के मंडल सन्मुख जाते समय पहले क्षण में जितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं उसकी अपेक्षा से वह मण्डल समान होने से उस मण्डल की कल्पना करना, वह कोई तात्विक अर्थात् वास्तविक मंडल नहीं है । (२७६-२८१)
तथाहु :रवि दुग भमण वसाओ निष्फज्जइ मंडलं इहं एगम् । तं पुण मंडलसरिसं ति मंडलं वुच्चइ तहा हि ॥२८२॥ गिरि निसिढ नील वं तेसु उग्गयाणं रवीण कर्कमि । पढमाओ चेव समयाओ सरणेणं जओ भमणम् ॥२८३॥ तो नो निच्छय रूपं निप्पज्जइ मंडलं दिणयराणम् । चंदाण वि एवं चिय निच्छयओ मंडला भावो ॥२८४॥