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(४४६) "तथा चागमः लेस्सा पाडिधाएणं उग्गमण मुहूर्त सिदूरे अ मूले अ दीसंति लेसाहितावेणंमझतअमुहुत्तंसिमूलेअदूरे अदीसंति,लेसापडिद्याएणं अत्थमण मुहुत्तं दूरे अ मूले अ दीसंति । अत्र दूरे चेति दृष्ट स्थानापेक्षया, विप्रकृष्टे मूले चेति दृष्दप्रतीत्य पेक्षया आसन्ने इति भगवती सूत्र शतक ८ उद्देश ॥८॥"
'तथा आगम में भी कहा है कि उद्य काल में दूर होने पर भी लेश्या के प्रतिघात के कारण नजदीक में हो इस प्रकार दिखता है, लेश्या उग्र होने से मध्याह्न के समय में नजदीक होने पर दूर दिखता है, और संध्या समय में तेज (प्रकाश) का प्रतिघात होने से दूर होने पर भी नजदीक लगता है । दूर अर्थात देखने वाले की अपेक्षा से दूर है, नजदीक अर्थात् देखने वाले को पड़ती प्रतीति के अपेक्षा से नजदीक है । ऐसा, श्री भगवती सूत्र शतक ८ उद्देश ८ में आया है।
दूरत्वादेव भूलग्नाविव तावुदयास्तयोः । नैकटयादेव दृश्येते. मध्याह्न खाग्रगाविव ॥२७२॥ उच्चत्वं तु सर्वदाऽपि समानमेव सूर्ययोः । योजनानां ह्यष्टशत्या नार्वाक् न परतश्च तौ ॥२७३॥
दूर होने.से ही वे दोनों सूर्य उदय व अस्त काल में पृथ्वी को स्पर्श कर रहा हो ऐसा दिखता है, और नजदीक होने से ही वे मध्याह्न काल में आकाश के अग्रभाग में रहा हो इस तरह दिखता है । (२७२) दोनों सूर्य की ऊंचाई तो हमेशा समान ही होती है, क्योंकि वे आठ सौ योजन से नजदीक नहीं आते हैं तथा दूर भी नहीं जाते हैं । (२७३)...
एवं दृष्टि पथ प्राप्तिप्ररूपणा प्रपंचिता ।
अथ प्ररूपणा भान्वोः कुर्मोऽर्धमण्डल स्थिते ॥२७४॥
इस प्रकार से दोनों सूर्य की दृष्टिपथ प्राप्ति के विषय में विवेचन किया । अब इसके अर्धमण्डल की स्थिति के विषय में कहते हैं । (२७४)
एकं मण्डलमेके नाहोरात्रेण समाप्यते । द्वाभ्यामभिमुखस्थाभ्यां रविभ्यां प्रतिवादिवत् ॥२७५॥
वादी, प्रतिवादी से आमने-सामने रहे दोनों सूर्य एक अहोरात में एक मण्डल पूर्ण करते हैं । (२७५)