SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४४८) । जातः क्षेप्य राशिः ८३ २३/६०+(१/६०x४२/६१) । अस्मिनं राशौ सर्वाभ्यन्तरानन्तर द्वितीय मण्डल गत दृक् पथ परिमाणे योजिते सति यथोक्तं सर्वाभ्यनतर मण्डले द्दक पथ परिमाणं भवतीति ज्ञेयम ॥" - "जोकि बाहर के तीसरे मण्डल से सर्वाभ्यनतर के १८२वे मंडल में पूर्वोक्त करण प्रक्रिया द्वारा तो ८३ पूर्ण योजन बाईस साठांश और पैंतीस इकसठ अंश क्षेत्र राशि होती है, फिर भी यहां हमें तो ध्रुवांक में से पूर्व कहे अनुसार ३६-इकसठांश भाग निकालने का कहा है । वह एक कला जितना कम होने पर सम्पूर्ण निकाल दिया है कहीं अधिक निकाला है, इससे वह अधिक एकत्रित होते सर्व से अन्दर के मंडल में छत्तीस इकसठ अंश सद्दश होता है, और इससे वह फिर से क्षेप्य राशि में मिलाते तिरासी पूर्ण योजन तेईस-साठांश और बयालीस-इकसठ अंश क्षेप्य राशि होती है । यह 'क्षेप्यराशि' सर्वाभ्यन्तर से दूसरे मंडल के दृष्टि पथ के माप में मिलाने से यथोक्त सर्वाभ्यन्तर मण्डल में के दृष्टि मार्ग का प्रमाण आता है। इस तरह समझना।" कथं चैव योजनानां सहस्रः दूरगावपि । आसन्नाविव दृश्येते तरणी उदयास्तयोः ॥२६८॥ मध्याह्ने तु योजनानाममष्टशत्यां स्थितावपि । दूरस्थाविव दृश्यंते कथमुष्णात्विषौ ननु ॥२६६॥ यहां प्रश्न करते हैं कि - दोनों सूर्य उदय-अस्त समय में हजारो योजन दूर होने पर भी अपने नजदीक क्यों दिखते हैं ? मध्यान्ह के समय में आठ सौ योजन ऊंचा होने पर बहुत दूर क्यों दिखता है ? (२६८-२६६) अत्रोच्यते - दूरत्वेन प्रतिघातात् स्वबिम्ब महसा रवी । आसन्नौ सुखदृश्यत्वात् ज्ञायेते उदयास्तयोः ॥२७०॥ मध्याह्ने चासन्नतया प्रसपत्तीवरश्मिभिः । ज्ञायते दुर्निरीक्ष्यत्वादासन्नावपि दूरगौ ॥२७१॥ इसका उत्तर देते हैं कि - सूर्य के उदय और अस्त काल में दूर होने से उनके बिम्बो के तेज का प्रतिघात होता है, इसलिए सुखपूर्वक देख सकते हैं, इस कारण मानो वो नजदीक में है इस तरह दिखता है । मध्याहन समय में नजदीक होने पर भी उनकी विस्तर रही तीव्र किरणों के कारण से दुःख मुश्किल से देख सकते हैं। इसलिए नजदीक होने पर भी दूर रहा हो इस प्रकार दिखता है । (२७०-२७१)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy