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________________ ___ (४४७) एक षष्टि विभक्तस्यैकस्य पष्टिलवस्य च । त्रयोविंशतिरेवांशा एवं सर्वत्र भावना ॥२६४॥ विशेषकं ॥ जैसे कि बाहर के मंडल से तीसरे मंडल में एक से गुणा की गई छत्तीस की संख्या (३६/६१) को ध्रुवांक में से निकाल दो तो पचासी पूर्ण योजन नौ साठांश योजन तथा एक साठांश योजन को चौबीस-इकसठ से भाग करने से जितना आयेगा। यह दूसरे मंडल की दृष्टि पथ की माप मिलाने पर बत्तीस हजार और एक पूर्ण (३२०००१) योजन, उनचास साठांश ४६/६० योजन तथा एक साठांश योजन के तेईस एक इकसाठांश (२३/६१) आयेगा । यह तीसरे मंडल के दृष्टिपथ का माप आता है । इस तरह सर्वत्र भाव रखना चाहिए । (२६०-२६४) एवमन्तः प्रविशतः सूर्यस्य बाह्य मण्डलात् । पूर्वोक्त रीतया दृग्मार्ग प्रमाणे वर्द्धिते रवेः ॥२६॥ पंचाशीतिः सातिरेका सम्पूर्णा सैव कुत्रचित् । साधिका चतुरशीतिः क्वापि सा केवला क्वचित्॥२६६॥ त्र्यशीतिः साधिका क्वापि योजनानां यथा यथम्। सर्वोन्तर्मण्डलां यावद् भाव्यं तच्च प्रर्शितम् ॥२६७॥ विशेषकं ॥ . इस तरह से बाहर के मंडल से अन्दर के मंडल में प्रवेश करते सूर्य के दृष्टि पथ का प्रमाण पूर्वोक्त विधि से बढ़ता जाता है । इसमें जो मिलाने की संख्या है वह कहीं पंचासी योजन से कुछ अधिक कहीं पचासी योजन है, कहीं चौरासी योजन से कुछ अधिक है। कहीं तो चौरासी योजन ही है और कहीं तिरासी योजन से कुछ अधिक है। इस तरह सर्वान्तर मंडल तक यथायोग्य जानना। (२६५२६७) "यद्यपि बाह्य तृतीय मण्डलात् द्वय शीत्याधिक शततमे सर्वाभ्यन्तर मण्डले यथोक्त करणेन त्र्यशीतिर्योजनानि द्वाविंशतिः षष्टि भागाः योजस्य एकस्य षष्टि भागस्य सत्का पंच त्रिशदेक षष्टि भागाः ८३ २२/६०+ (१/६०४३५/६५) एवं रूपः क्षेप्य राशि र्भवति तथापि येऽत्र ध्रुवकात् षट् त्रिशत् यथोक्त रूपाः शोधिता: ते कलया न्यूना अपि पूर्णा एव विवक्षिताः ततः किं चद धिकं निर्गतम् तच्च अधिकं सर्वाभ्यन्तर मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् अष्ट षष्टिः एक षष्टि र्भागा भवन्ति । ततः ते भूयः क्षेप्य राशौ क्षिप्यन्ते ततः
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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