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________________ (४४६) ३१६१६-३६/६०-(१/६१४६०/६१) योजन । पंचाशीतिः योजनानि नव भागाश्च षष्टिजाः । षष्टयंशस्यै कस्य भागाः षष्टिस्तथै कषश्टि जाः ॥२५६॥ सर्वान्त्य मण्डलाद चीन द्वितीय मण्डले । एषा वृद्धि स्ततो वृद्धौ पुरतो ध्रुव को ऽप्यसौ ॥२५७॥ सर्व से बाहर के मंडल से अन्दर के मंडल में तो ३१६१६-३६/६० (१/६०४२०/६१) योजन से सूर्य दिखता है । कहने का मतलब यह है कि ८५ पूर्णांक +६/६०+ (१/६०४६०/६१) योजन की वृद्धि होती है । सर्व से अन्तिम मंडल के पहले दूसरे मंडल में इतनी वृद्धि जानना और उसके बाद भी उतनी ही वृद्धि प्रत्येक मंडल होती जाती है । इससे इस संख्या को ध्रुवांक रूप समझना चाहिए। (२५४-२५७) सर्व बाह्या तृतीयादि मण्डलेष्वथ दृक्पथम् । ज्ञातुं गुणितया षट्त्रिंशतैकद्वयादि संख्यया ॥२५८॥ ध्रुवांकेन्यू नितेऽसौ स्यात् क्षेप्यराशिरनेन च । प्राच्य मण्डल दृग्मार्गो युक्तः स्यादिष्ट मण्डले ॥२५६॥ अब सर्व बाह्य मंडल से तृतीय आदि मंडलों में दृष्टि पथ का माप जानने के लिए छत्तीस को एक-दो आदि संख्या से गणा करने में जो संख्या आती है उसे इकसठ से भाग देकर ध्रुव संख्या में से निकाल देने पर जो संख्या आती है उस संख्या को पूर्व के मंडल का दृष्टि पथ के माप में मिला देना इससे इष्ट मण्डल में सूर्य के दृष्टि पथ का माप आता है । (२५८-२५६) तथाहि - तृतीयै मण्डले बाह्यात षट् त्रिंशदेकताडिता। . ध्रुवकात्तदवस्थैव विशोध्यते ततः स्थितम् ॥२६०॥ . पंचारीतिः योजनानि षष्टिगाश्च लवानव । षट्यंशस्यैकस्य लवाः चतुर्विंशतिरेव च ॥२६१॥ युग्मं ॥ द्वितीयमंडलस्याक्षिगोचरोऽनेन संयुते । तृतीयमण्डले दृष्टिपथमानं भवेदिदम् ॥२६२॥ योजनानां सहस्राः स्युद्वात्रिंशत्यैक योजनाः । . भागाः एकोनपंचाशद्योजनस्य च पष्टिजा ॥२६३॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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