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________________ . (४४५) बाह्यार्वाचीन मण्डलगत दृक् पथ प्राप्ति परिमाणात्यदिशोध्यते तदा यथोक्तं सर्वान्त्य मण्डले दृक्पथ प्राप्ति परिमाणं भवतीति ध्येयम् ॥" "यहां हमने सर्व से अन्दर के मंडल से तीसरे मंडल का पहले कल्पना की बात कहते हैं अर्थात इस अपेक्षा से अन्तिम जो १८२वां मंडल आया है उसमें यदि पूर्वोक्त 'करण प्रक्रिया के कारण शोध्य राशि८५+११/२०(१/६०४६/६१) योजन होता है फिर भी पूर्वोक्त १८/३६ के भाग अमुक कला न्यून होने पर व्यवहार से पूर्ण कहा है अत: ये कला न्यूनतम अनत्य मंडल में एकत्र होने से १८/५१ कम होता है, वह निकालने से ८५+६/६०+(६०x१/२१) योजन शोध्य राशि होती है । इस शोध्य राशि को यदि सर्व प्रकार से बाहर के मंडल से पूर्व के मंडल के 'दृष्टिपथ प्राप्ति परिमाणं' में से निकालने में आए तो उत्तर में जो संख्या आती है, वह यथोक्त है सर्व से अन्त्य मंडल के दृष्टिपथ प्राप्ति का परिमाण समझना ।" "पूर्वोक्त ध्रुव का धुप पत्तिस्तु अत्र उपाध्याय श्री शान्ति चन्द्रोकृत जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र वृत्ते: अवज्ञेया।ग्रन्थ गौरव भयात न अत्र उच्यते।अकित ज्ञेयम् ॥" 'पूर्वोक्त 'ध्रुव' आदि की उपपत्ति तो उपाध्याय श्री शान्ति चन्द्र रचित जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र की टीका द्वारा जान लेना चाहिए । यहां ग्रन्थ गौरव बढ जाने के भय से हम वह नहीं कहते ।' यद्वा. - पंच योजन सहस्राः पंचोत्तरं शतत्रयम् । . . षष्टिभागाः पंचदश मुहूर्तगतिरत्र हि ॥२५२॥ णमूहूर्तामना चैषा दिवसार्थेन गुण्यते । ततोऽप्येत्तत् दृक्. प्राप्तिमानं सर्वान्त्यमण्डले ॥२५३॥ अथवा यहां एक मुहूर्त में ५३०५ १५/६० योजन सूर्य की गति होती है, उसे आधे दिन के छः मुहूर्त से गुणा करने में आए तो इस तरह भी सर्वान्त्य मंडल में सूर्य के दृष्टिपथ का प्रमाण आता है । (२५२-२५३) सर्व ब्राह्याक्तिने तु चतुर शीतिवर्जितैः । द्वात्रिंशता योजनानां सहस्त्रैः दृश्यते रविः ॥२५४॥ अंशैश्चैकोनचत्वारिंशता षष्टि समुद्भवः । एकस्य षष्टिभागस्य षष्टयांशैश्चैक षष्टि जैः ॥२५५।।
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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