________________
(४३८) "तथाहुः श्री मलय गिरि पादाः क्षेत्र विचार बृहद् वृत्तौ ॥एवं मण्डले मण्डले आयामविष्कम्भयोःपंच-पंचयोजनानिपचंत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकानि परिरय अष्टादश-अष्टादश योजनानि परिवर्धयता तावद्वक्तव्यं यावत्सर्व बाह्य मण्डलं एकं योजनशतसहस्रषट्शतानिषष्टयधिकानि आयामविष्कम्भाम्यां त्रीणि योजनशत सहस्राणि अष्टादशसहस्राणि त्रीणिशतानि पंचदशोत्तराणि किंचि दूनानि परिरये इति । अत्र च यद्यपि प्रति परिक्षेपं अष्टादश-अष्टादश वृद्धौ त्र्यशीत्यधिक शतस्य अष्टा दशभिः गुणने चतुर्नवत्यधिकानि द्वात्रिंशच्छतानि भवन्ति एतेषा च सैकोननवति पंच दश सहस्त्राधिकलक्षत्रय रूप प्रथम मण्डल परिक्षेपेण सहयोगे सर्वबाह्या मण्डल परिरयः तिस्त्रो लक्षा अष्टादश सहस्त्रा त्रिशती त्र्यशीत्युत्तरा भवति । परन्तु प्रागुक्तानि सप्तदश योजनानि साधिकयोजन सत्काष्टा त्रिंशदेक भागाधिकानि प्रति पंरिरय वृद्धि रितिविभाव्यैवन्यूनपंचदशाधिकशतत्रययुक्ताष्टादशसहस्राधिंकलक्षत्रयरूपः सर्वबाह्य मण्डल परिधिः उक्तः इति सम्भाव्यते । यद्यपि अत्रापि उपरितनं शतत्रयं चतुर्दशोत्तर मेव भवति तथापि उपरितनानां अष्टत्रिंशतो भागानां साधिकत्वात् न्यूनानि पंच दशैव विवक्षितानि इति सम्यग् विभागनीयं गणितज्ञैः।"
___ "इस सम्बन्ध में आचार्य श्री मलय गिरि ने क्षेत्र विचार ग्रन्थ वृहत् टीका में कहा है कि - इस तरह प्रत्येक मंडल में मंडल के विस्तार में पांच योजन और पैंतीस इकसठ अंश अथवा मंडल के परिधिमें अठारह योजन बढ़ते हुए वहां तक पहुँचना कि मंडल का विस्तार एक लाख छह सौ साठ (१००६६०) योजन आ जाय। अथवा इस मंडल की परिधि तीन लाख अठारह हजार तीन सौ और लगभग पंद्रह (३१८३१५) योजन आये । यहां प्रत्येक परिधि में अठारह बढ़ा देने से एक सौ तिरासी को अठारह से गुणा करने से बत्तीस सौ चौरानवे (३२६४) आता है, और इस संख्या को प्रथम मंडल के परिधि की तीन लाख पंद्रह हजार निवासी वाली संख्या में मिला देने से सर्व बाहर मंडल के सर्व से बाहर मंडल की परिधि तीन लाख अठारह हजार तीन सौ तिरासी (३१८३८३) योजन होते हैं, परन्तु सत्रह योजन और अड़तीस अंश वाली संख्या पूर्ण अठारह योजन गिना है । इसके कारण ही इतना ज्यादा परिधि में आता है, परन्तु यदि १७ योजन और ३८ अंश ही परिधि में बढ़ाना चाहिए, तो सर्व से बाहर के मंडल की परिधि तीन लाख अठारह हजार तीन सौ