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________________ (४३७) अष्टादश योजनानि परन्तु व्यवहारतः । सम्पूर्णानि विवक्ष्यन्ते ततोऽष्टादश योजनीम् ॥२०४॥ प्राच्य प्राच्य ,मण्डलस्य परिक्षेपे नियोजयेम् । ततो अग्नयग्न्य मण्डलस्य परिक्षेपमितिर्भवेत् ॥२०५॥ युग्मं ॥ एवं वृद्धिःपरिक्षेपे यावच्चरममण्डलम् । . ततो यथावृद्धिहानिरासर्वान्तर मण्डलम् ॥२०६॥ युग्मं ॥ अब एक तरफ से सर्व से अन्दर मंडल के पास का मंडल पूर्व पश्चिम, सर्व से अन्दर के दो योजन और अड़तालीस अंश छोड़कर रहा है । जिससे दोनों तरफ के मिलाकर पांच योजन और पैंतीस अंश होता है । दोनों सूर्यों के अन्तर के समान प्रत्येक मंडल में पांच योजन और पैंतीस अंश विस्तार में बढ़ता है । इसका परिक्षेप (घेरावा) भी व्यास के अनुसार से निकालना चाहिए। अथवा पांच योजन और पैंतीस अंशवाला व्यास का ही परिक्षेप-घेराव अलग निकालना। वह सत्रह योजन और अड़तीस अंश लगभग आता है, किन्तु व्यवहार से वह सम्पूर्ण अठारह योजन कहलाता है। इस अठारह योजन को पूर्व-पूर्व के मंडल के परिधि में मिलाने से आगे आगे के मंडल के परिधि का माप आता है । इस तरह अन्तिम मंडल तक परिक्षेप-घेरावा बढ़ता जायेगा । यहां जैसे वृद्धि होती जायेगी वैसे सर्व प्रकार से अन्दर के मंडल तक वापिस आते हानि होती जायेगी । (१६६-२०६) एवं च परिधिः सर्वान्तरानन्तर मण्डले । लक्षत्रयं पंचदससहस्त्राः सप्तयुक् शतम् ॥२०७॥ तातीयिके मण्डले च सर्वाभ्यन्तर मण्डलात् । लक्षास्त्रिः पंचदश सहस्रास्तत्वयुक्शतम् ॥२०८॥ . लक्षास्तिस्रोऽष्टादशैव सहस्रास्त्रिशती तथा । युक्तोनैः पंच दशभिः सर्वान्त्ये परिधिर्भवेत् ॥२०६॥ इस गिनती से सर्व से अन्दर मण्डल के बाद के मण्डल की परिधि तीन लाख पंद्रह हजार एक सौ सात (३१५१०७) योजन आता है, सर्व से अन्दर के मण्डल के तीसरे मंडल की परिधि तीन लाख पंद्रह हजार एक सौ पच्चीस (३१५१२५) योजन आता है । और सर्व से अन्तिम मंडल की परिधि तीन लाख अठारह हजार तीन सौ लगभग पंद्रह (३१८३१५) योजन आते है । (२०७-२०६)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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