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________________ (४३६) सषष्टियोजनशतत्रयं जातमिदं पुनः । द्वीप व्यासाल्लक्षरूपाद्विशोध्यते ततः स्थितम् ॥१६॥ विष्कम्भायामतो नूनं सर्वाभ्यन्तर मण्डलाम् । सहस्रा नवनवतिश्चत्वारिंशा च षट्शती ॥१६॥ परिधिस्तु यथाम्नायमस्य लक्षत्रयं युतम् । सहत्रैः पंच दशभिः नवाशीतिश्च साधिका ॥१६॥ सर्व से अन्दर का मण्डल द्वीप में उभय से एक सौ अस्सी योजन अवगाहन रूप में रहा है । इस संख्या को दो गुणा करे तो तीन सौ साठ योजन आता है । यह संख्या द्वीप के विस्तार, एक लाख योजन है, उसमें से निकाल देने पर निन्यानवें हजार छ: सौ चालीस (६६६४०) योजन आया । इन सबसे अन्दर के मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई आती है। अर्थात् बीच का अन्तर आया है। इसके आधार पर इसकी परिधि तीन लाख पंद्रह हजार नवासी (३१५०८६) योजन होता है । (१६३-१६६) सषष्टि योजनशतत्रयं यत्प्रागपाकृ तम् । तस्य वा परिधिः कार्यः पृथगीदृद्विधस्तु सः ॥१६७॥ एकादश शतान्यष्टत्रिंशान्येनं विशोधयेत् । जम्बूद्वीपस्य परिधेः स्यादप्येवं यथोदितः ॥१६८॥ अथवा इस तरह भी होता है :- पूर्वोक्त तीन सौ साठ योजन की अलग परिधि निकाले, तो वह ग्यारह सौ अड़तीस योजन आता है, और जम्बू द्वीप के परिधि में से निकाल दे, अतः उपर्युक्त परिधि आती है । (१६७-१६८) अथैकतः स्थितं सर्वान्यरानन्तर, मण्डलम । अष्ट चत्वारिंशदेशान् सर्वान्तर्मण्डलात्मकान् ॥१६॥ द्वे योजने च त्या परतोऽप्येवमेव तत् । एवं पंचत्रिंशदशं भवेद्योजन पंचकम् ॥२०॥ ततोऽर्क युग्मान्तरवद्धर्धन्ते प्रतिमण्डलम् । योजनानि पंच पंचत्रिंशदंशाश्च विस्तृतौ ॥२०१॥ ततस्तेषा परिक्षेपा ज्ञेया व्यासानुसारतः । स पंचत्रिशदंशस्य योजनपंचकस्य वा ॥२०२॥ परिक्षेपः पृथक्कार्य ईदग्रूपः स जायते । साधिकाष्टात्रिंशदंशयुक सप्तदशयोजनी ॥२०३॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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