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________________ (४३५) सर्वबाह्यमण्डले तु चरतोरूष्णरोचिषोः । करप्रसार एतावन् स्यात पूर्वापरयोर्दिशोः ॥१८७॥ एकत्रिंशत् सहस्राणि शतान्यष्टौ तथोपरि । एकत्रिंशद्योजनानि त्रिशदंशाश्च षष्टिजा ॥१८८॥ मेरोर्दिशि योजनानां वाद्धौंत्रिशंशतत्रयम् । द्वीपे च पंचचत्वारिंशत्सहस्रास्ततः परम ॥१८॥ त्रयस्त्रिशत्सहस्राणि सत्र्यंशं योजनत्रयम् । कर प्रसारो भान्वोः स्याल्लवणाब्धौ शिखादिशि ॥१६०॥ ऊर्ध्वं तु योजनशतं तुल्यं सर्वत्र पूर्ववत् । अष्टादश योजनानां शतान्यधस्तथैव च ॥१६१॥ सर्व प्रकार से बाहर के मण्डल में जब ये दोनों सूर्य विचरते रहते हैं तब उनकी किरणों का विस्तार पूर्व और पश्चिम में इकतीस हजार आठ सौ इकतीस पूर्णांक और एक द्वितीयांश (३१८३१ १/२) योजन है । और मेरू तरफ समुद्र तीन सौ तीस योजन है, और द्वीप में पैंतालीस हजार योजन है। लवण समुद्र में शिखा की ओर तैंतीस हजार और तीन पूर्णांक एक तृतीयांश = ३३००३ १/३ योजन पर्यन्त है, ऊपर ऊंचाई तो पूर्व के समान सर्व स्थान पर सौ योजन है, और नीचे अठारह सौ योजन है । (१८७-१६१) "इति क्षेत्र विभागेन दिन रात्रि मान प्ररूपणा तत्प्रसंगादात पततमः संस्थाना दि प्ररूपणा च ॥" 'इस तरह से क्षेत्र विभाग द्वारा दिन और रात के अनुसार का कथन किया है और इसके प्रसंग से ताप (प्रकाश) और अंधकार के आकार आदि की प्ररूपणा भी की है।' कृता क्षेत्र विभागेन दिनरात्रिप्ररूपणा । परिक्षेपमितिं बुमंः सम्प्रतं प्रतिमण्डलम् ॥१६२॥ इस तरह क्षेत्र विभाग से दिन रात की प्ररूपणा की । अब प्रत्येक मंडल में इसका परिक्षेप (परिधि) कितना होता है उसे कहते हैं - (१६२) वगाह्योभयतो द्वीपे सर्वान्तर्मण्डलं स्थितम् । साशीतियोजनशतम् द्विघ्नं कार्यमिदं ततः ॥१६३॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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