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(४३१) होता है । क्योंकि बाहर और अन्दर के इस तरह दोनों मंडलों में प्रांत के अन्दर एक दशांश वृद्धि या हानि होती है । (१५६-१६३)
प्रकाशपृष्टलग्नस्यान्धस्येव तमसोऽप्यथ । आकृतिश्चिन्त्यते भान्वोः सर्वान्तर्मण्डल स्थयोः ॥१६४॥ · अस्याप्याकृतिरूवा॑स्य तालिका पुष्प संस्थिता । तापक्षेत्रवदायाप्तमानं चास्याप्यवस्थितम् ॥१६५॥ अस्तंगते दिनपतौ मेरोरपि गुहादिषु । ध्वान्तोपलब्धेरायामः तमसोऽपि प्रकाशवत् ॥१६६॥
जब दोनों सूर्य सबसे अन्दर के मंडल में होते हैं, तब अघ के समान प्रकाश के पीछे लगे अंधकार की आकृति ऊर्ध्वमुखी ताल पुष्प के समान है, इसकी लम्बाई का प्रमाण भी ताप क्षेत्र की लम्बाई जितना ही है। सूर्य का अस्त होता है, उस समय मेरू की गुफा आदि में भी अंधकार छा जाता है, इससे अंधकार की लम्बाई भी प्रकाश की लम्बाई सद्दश ही है । (१६४-१६६)
विष्कम्भो मेरू संलग्ने स्यादेवं ध्वान्तचोलके । मन्दराद्रिपरिक्षेपदशांशे द्विगुणीकृते ॥१६७॥ षट्. योजन सहस्राणि चतुर्विशं शतत्रयम् । दश भागी कृतस्यैक योजनस्य लवाश्च षट् ॥१६८॥ लवणाम्भोधि दिशि तु विष्कम्भः तमसो भवेत् । अन्तर्मण्डलपरिधेः दशांशे द्विगुणीकृते ॥१६६॥ स चायम् - योजनानां सहस्रास्त्रि षष्टिः सप्तदशाधिकाः । अष्टचत्वारिंशदशाः षष्टिजाः तत्र मण्डले ॥१७॥
अब इसकी चौड़ाई मेरू के आगे, मेरू परिधि के दो दशांश समान है, अर्थात् छः हजार तीन सौ चौबीस पूर्णांक छः दशांश ६३२४ ६/१० योजन है । जब लवण समुद्र की दिशा भी अंधकार का विष्कंभ (चौड़ाई) सब अभ्यंतर मंडल की परिधि के दशांश को दुगना करने से तिरसठ हजार सत्रह और अड़तालीस साठांश (६३०१७ ४८/६०) योजन होता है । (१६७-१७०)
इति कर्क संक्रान्तौ आतप क्षेत्रतमः क्षेतयोः स्वरूपम् ।