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(४२७) दशांशत्रितयं लक्षा द्विचत्वारिंशदस्य च । सप्तत्रिंशा चतुस्त्रिंशत् सहस्राः परमे दिने ॥१३६॥ तापक्षेत्रं तिर्यगेतत् पुष्करार्धे विवस्वताम् । ततस्तदर्धे पश्यति तत्रत्याः सूर्यमुद्गतम् ॥१३७॥ .
इस प्रकार से सूर्यों के प्रकाश क्षेत्र के दशांश की कल्पना पुष्करार्ध द्वीप करना चाहिए । वह इस तरह :- पुष्करार्ध द्वीप का मानुषयोतर पर्वत के पास एक करोड़ बियालीस लाख चौंतीस हजार और उनचास योजन का घेरावा है । (पुष्करार्ध की परिधि के दशांश का तीसरा भाग ४२७०२७ ३/१० योजन होता है । क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत की अभ्यंतर पुष्कराध की परिधि १४२३०२४६ योजन प्रमाण है। इससे इस श्लोक में संख्या कही है वह युक्त नहीं है ।) इस संख्या के दशांश को तीन गुणा करें तो बियालीस लाख चौंतीस हजार सैंतीस योजन होता है। इतने योजन पुष्करार्ध द्वीप में सूर्यों का उत्कृष्ट दिनमान में तिरछा ताप क्षेत्र है, और इससे उसके आधे भाग से अर्थात २११७०१८॥ योजन से, वहां के लोग सूर्य का उदय देखते हैं । (१३४-१३७) - तथोक्तम् - .
लक्खेहिं एगवीसाइ साइरेगेहिं पुक्खरद्धंमि । उदए पिच्छंति नरा सूरं उक्कोसए दिवसे ॥१३८॥
तथा अन्य स्थान पर भी कहा है कि - पुष्करार्ध द्वीप में उत्कृष्ट दिन के अन्दर इकतीस लाख से कुछ अधिक योजन तक के दूर से लोगों को सूर्य उदय दिखता है। (१३८)
सर्वान्तरमंडलगतसूर्ययोरातपाकृ तिः । ऊर्ध्वास्य तालिका पुष्प संस्थान संस्थिता मता ॥१३६॥ मेरूदिय॑धवलयाकारा वारिनिधेर्दिशि । शकटो/मूल भागानुकारेयं प्रकीर्तिता ॥१४०॥ मेरोर्दिशि संकुचिता विस्तृता चाम्बूधेर्दिशि । प्रत्येकमस्या आयामो दक्षिणोत्तरयोः दिशो ॥१४१॥ मेरोरन्तात् योजनानां सहस्राण्यष्ट सप्ततिः । शतत्रयं त्रयस्त्रिंशं तृतीय योजनांशयुक् ॥१४२॥